सर्दी हो, चाहे गर्मी हो या हो रही बरसात,
क्यूँ आलस छोड़ूँ, घर से निकलूँ, समझ न आए बात,
हर दिन, हर ऋतु, हर माहौल से कुछ-कुछ है शिकायत,
बाहर निकलूँ, चैन छिन जाए, बिगड़ी हुई है आदत,
नित्यकर्म की निश्चितता में बसता है सुकूँ,
क्यूँ शयन-व्यसन और भोजन हेतु बाहर जाकर तरसूँ ? (6)
आवारगी से रहा है मुझको हमेशा ही परहेज,
सैर को चिरउत्सुक प्रेयसी ने रखा है सहेज,
उन अनगिनत पर्यटन प्रस्तावों को जो निर्दयता से ठुकराए,
आर्द्र निष्ठुरता से थे क्यूँ उसके अरमान दबाये ? (10)
इतनी सर्दी में कहीं जाएंगे, कितना सा घूमेंगे,
ठंड खाकर रज़ाई में ही घुसे पड़े रहेंगे,
लेनी है चाय की चुसकियाँ, और कमरे में ही रहना है,
इन सब के लिए ये घर का गरम बिस्तर क्या बुरा है?
जला लो अंगीठी,
लो घर में बन गया उत्तरकाशी,
चला दो भले हीटर-ब्लोअर,
पहन लो और एक-दो स्वेटर,
पर शीत में यात्रा का नाम न लो,
धुंध दूर से देखकर ही जाता हूँ डर ।20।
भला गर्मियों में कौन करता है देशाटन,
उफ, मैदानों पर भयंकर लू चल रही है !
उबलता लहू, बहता स्वेद,
तन-मन झुलसाते ग्रीष्म थपेड़े,
पहाड़ों पर भीड़ ही भीड़, सैलानियों के रेले,
न होटलों में रहने को कहीं जगह,
और भोजन के लिए भी लंबी कतारें,
इससे तो हम हैं अपने घर में भले,
एसी की चैन-भरी शांतिप्रद हवा में,
तुम्हारी बनाई मटर पनीर और तंदूरी रोटी,
फ्रीजर में पड़ी मेंगो आइसक्रीम,
लो मन गया शानदार जलसा,
और चारदीवारी से कदम भी न निकला।33।
अरे वर्षाकाल में तो बुद्ध जैसे यायावर तक प्रवास करते थे,
ऐसे गीले-कीचड़ और प्लावन में हम किधर भी, और क्यूँ जाएँ ?
सीले कपड़ों में और टपकती छतों के नीचे,
क्या किसी ने प्रेम अगन सुलगाई है ?
तुम्हारे हाथों के बने पकौड़े और ठंडी-ठंडी हाला,
आवासीय बालकनी में बैठे-बिठाये दिख रही रिमझिम,
मैं अखबार पड़ता हुआ,तुम सब्जी काटती हुई निहार रहे हैं,
ये भी तो आधुनिक, मध्यवर्गीय, शहरी रोमांस है,
भले कालिदास इस पर न लिख सके हों,
पर यह कालि-डी (Kali-D) अवश्य लिखेगा ! (43)
हिमालय के उभार तुम पर हैं सुशोभित,
सतपुड़ा के जंगलों से कम घने ये केश नहीं,
आँखें मचलती हुईं नोएडा-गुड़गाँव के यातायात जैसी,
जिह्वा दिल्ली से तेज़-तर्रार और व्यस्त,
प्रिए, ये नीलगिरी से नितंब,
जांघें मालवा और दक्किन के पठार,
कभी जुहू, मेरीना पर उफनता ज्वार,
कभी थार-सा शुष्क मेरा तरसता प्यार,
शेरनी की तरह दहाड़ती हो तब जिम कॉर्बेट यहीं है,
मुमताज़, जब बाहों में पिघलती हो तो क्या हम खुर्रम नहीं हैं ?
कामाख्या है जब हो पूजा के फूल चढ़ातीं,
केदार जब मौन हो कर समाधि में रम जातीं,
अयोध्या जब लड़-झगड़कर हम फैसला कर पाएँ,
बाकी समय बनारस- हर तर्क पर वितर्क चलाएं ।57।
इस संतुलन को बिखेरता एक दिन एक तूफान आया,
मेरी प्रियतमा की अंतरंग सखी का रुझान आया,
अपने परिवार संग वह सुहासिनी हमें साथ लिए
जाना चाहती थी मंदारमनी बीच पर,
इंकार नहीं था मुमकिन तो हो गए तैयार,
समुद्र में उसकी अठखेलियाँ देख चढ़ गया बुखार,
उस मत्स्यांगना पर से नज़रें हटतीं,
तो अपनी तिलोत्तमा से भी लड़तीं,
किस तासीर की ताड़ी हूँ मेरी प्रियतमा उस दिन समझी,
वह जिसे बाहर की हवा पक्के से चढ़ती है,
यह अस्तबल में बंधा अपना गधा ही भला है ,
रेसकोर्स पर तो द्रुतगामी चेतक है ! (69)
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