शब्द लिखते-लिखते पन्ने भरने को आते हैं,
पर वाक्य बनते-बनते अर्थहीन हो जाते हैं ।
जितने बड़े हों बुल-बुले पानी बन जाते हैं,
ऊंचे-ऊंचे पर्वतों पर बर्फ बन जम जाते हैं।4।
बात कहते-कहते वह प्रवचन दे जाते हैं,
ज्ञान झरते-झरते यूंही दर्शन लिख जाते हैं।
भीड़ जुटते-जुटते ऐसे ही पंथ बन जाते हैं,
महात्मा धीरे-धीरे भगवान बन पुजाते हैं ।8।
रेंग-रेंगकर सुइयां बुरा हाल बतलाती हैं,
टंगी-टंगी दीवाल पर घड़ी काल बन जाती है।
दौड़-दाड़ कर कल्पना चाहे जहां पहुँच जाती हो,
लौट-लाटकर वापस घुड़साल चली आती है।12।
भले काज करते-करते जीवन निकल जाते हैं ,
जूते घिस-घिस कर भी सज्जन फसे रह जाते हैं।
धक-धक करते काले हृदय ज्यूंही बंद हो जाते हैं,
क्रिया-कर्म से पहले ही स्वर्गवासी कहलाते हैं।16।
सूखा-सूखा खून ब्याहता की मांग बन जाता है,
बुझी-बुझी क्रांति से मिलने प्रवासी लौट कर आता है।
पल-दो पल का बस मिलन फिर साथ बिछुड़ जाता है,
हाँफता-हाँफता मजदूर जब रेलगाड़ी चढ़ जाता है ।20।
रिसता-रिसता इश्क़ रिश्ते को रेगिस्तान बना देता हैं,
आशिक आँसू बहा-बहाकर सैलाब बुला लेता है ।
उजड़े-उजड़े प्यार का फिर तालाब बन जाता है ,
रुके-रुके पानी में मछ्ली का हिसाब लग जाता है ।24।
#प्रवासी #आस्तित्विकसंकट #रेगिस्तान #काल