प्रेमचंद की बोलचाल वाली उर्दूयुक्त हिन्दी के युग में संस्कृतनिष्ठ,इतिहासपरक चित्रलेखा लिखने का साहस प्रदर्शित करने वाले भगवतीचरण वर्मा हिन्दी साहित्य के एक स्तम्भ रहे हैं । 1934 में लिखे गए चित्रलेखा ने उन्हें अमर ख्याति प्रदान की । ‘भूले बिसरे चित्र’ ने उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड दिलवाया । साल 1971 में वे पद्म भूषण से नवाज़े गए , और फिर राज्य सभा में भी मनोनीत हुए । पर मेरे लिए भगवतीचरण वर्मा का नाम एक लघु कहानी के लेखक के तौर पर देदीप्यमान रहा है जो मैंने कक्षा छ्ह के पाठ्यक्रम में पढ़ी थी, नाम था ‘प्रायश्चित’ ।
कबरी बिल्ली का नाम लूँगा तो शायद तुरंत भाँप जाएंगे, ‘प्रायश्चित’ भले स्मरण न रहा हो । वही कबरी जो घर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और रामू की बहू किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से । घर का घी-दूध-मावा-मिठाई अधिकार से चट कर जाने वाली कबरी दरअसल नवब्याहता के आस्तित्विक क्रोध का उचित आकलन नहीं कर पाई । रोज़-रोज़ के नुकसान से खिसियाई बहू ने दूध चाट रही बिल्ली पर पाटा पटक दिया । कबरी न हिली,न डुली, न चीखी, न चिल्लाई, बस एकदम उलट गयी ।
बिल्ली की हत्या पर घोर कुंभीपाक नरक का विधान है । अतः प्रायश्चित करना आवश्यक था और इसके निर्धारण हेतु पंचायत बैठी, जिसके मुखिया बने पंडित परमसुख । बहुत दावपेंच के बाद तय हुआ कि ग्यारह तोले की सोने की बिल्ली दान करनी होगी और साथ में पूजा और ब्राह्मणभोज की व्यवस्था भी होगी । परमसुख जो नाच नचा रहे थे, माँ जी वही नाचने पर मजबूर थीं । निकलती हुई बिल्ली की आत्मा को शायद यह ढकोसलेबाजी जँची नहीं , और इस हो-हल्ले के बीच खुद ही उठ कर भाग गयी । परमसुख को चढ़ाये जाने वाले पकवान और भेंट होने वाली सोने की बिल्ली का दान कोरे स्वप्न रह गए ।
एक लघु कथा में वर्मा जी ने लखनऊ में ‘दो बाँके’ लड़वा कर बाज़ार बंद करवा दिए, तो एक अन्य में संजीव कॉलोनी में ऊंची आवाज में भजन और कव्वाली के बीच ‘मोरचाबंदी’ करवा दी । ‘उत्तरदायित्व’ में एकतरफा प्यार, ‘कुँवर साहब मर गए’ में शराब-व्यसनी की विश्वसनीयता और ‘नाज़िर मुंशी’ में गरीब रिशतेदारों और जाननेवालों के साथ होने वाले रूखे व्यवहार पर टीका-टिप्पणी की है । एक आचार्य की ‘वसीयत’ के अनुसार एक लेक्चरर मित्र को कभी ‘मैं पंडित हूँ’ तो कभी ‘तुम बुद्धू हो’ बकने वाला एक तोता प्राप्त होता है, और ‘संकट’ नामक लघु कहानी में कवि आभिशप्त को महनताने के तौर पर सब्जी टिका दी जाती है । जो संग्रह मैंने पढ़ा उसमे बीस प्रतिनिधि लघु कहानियाँ थीं , परंतु जो कटाक्ष ‘प्रायश्चित’ में है, वह अन्य किसी में नहीं मिला ।
गलती से पा गए ‘विक्टोरिया क्रोस’ की कहानी बड़ी दिलचस्प है । ‘छ्ह आने के टिकट’ की खातिर जेल पहुँच गया ज़बरदस्ती का मेहमान पाठक को स्वयं आझेल लग सकता है । ‘इनस्टालमेंट’ में एक रईस तांगे पर मज़ाक उड़ने के बाद दिखवारोग से ग्रस्त होकर किस्तों पर कार खरीद लेता है, तो ‘प्रेसेंट्स’ में एक अकेली महिला और उसके प्रेमनुभावों की चर्चा है । प्रवासी मजदूर ‘खिलावन’ भूखा-प्यासा, ट्रेन में छिपता छिपाता, बिना टिकट यात्रा कर के जब घर पहुंचता है तो अपनी पत्नी को पैसे की तंगी में किसी ग्राहक संग आलिंगनबद्ध पाता है और उल्टे पैर लौट जाता है ।
‘एक अनुभव’, ‘पियारी’ और ‘दो रातें’ में वैश्याओं के किस्से हैं, ‘आवारे’ में चार स्ट्रगलर्स और एक वैश्या की कहानी है, ‘तिजारत का नया तरीखा’ में एक सम्पदा फूकने में विशेषज्ञ परिवार का लेखा जोखा है जबकि ‘सौदा हाथ से निकल गया’ में एक एंटीक मेज़ उसका पाया चूल्हे में जला दिये जाने के कारण बिकते-बिकते रह जाती है ।
कहानियों की पठनीयता आज भी बरकरार है । सहज भाव से किए गए सामान्य लेखन से ही ऐसी यश प्राप्ति संभव है । आज़ादी के बाद के पच्चीस बरसों के शहरी जीवन को आधार बनाकर अधिकतर कहानियाँ लिखी गई हैं । वर्मा जी का जन्म उन्नाव में 1903 में और मृत्यु 1981 में हुई । उनका पूरा लेखन, इन लघु कहानियों की भांति ही, बहुत पठनीय है- न उनमें भारी शब्द हैं , न आध्यात्मिक फलसफे । सामान्य जन मानस से जुड़ी हुई आम घटनाओं को पिरोने का कार्य लेखक ने कुशलता से किया है । वक्त ने भगवतीचरण वर्मा के नाम की चमक कुछ क्षीण अवश्य कर दी है , शायद इसलिए कि उनके लिखने या बात कहने का अंजाद हट-के या अलग-सा या चीखता-चिल्लाता हुआ नहीं था, लेकिन यह सहजता और समरसता ही उनके साहित्य का मूल आनंद भाव भाव भी है ।
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