
आँख थी कभी गलती से लड़ जाती, मान लेते थे इकरार,
राह मे खड़ी कहीं दिख गई, कर तो रही है इंतज़ार,
कभी धुंधला-सा दिखता था, तो कुहरा ही होता था,
जो चमकता था अंधेरे में, उसका चेहरा ही होता था,
यह कमबख्त ऐसा पर्दा गिरा देता था कुहासा,
क्या मज़ाल आशिक को दिख तो जाए एक मुहासा ।6।
आज आलम यह है कि हर धुंध धुआँ हो गयी है,
मेरे फफड़ों के अंदर कितनी तार जमा हो गयी है,
बचपन के प्यार का एहसास भी अब प्रदूषण है,
सब भस्म हो रहा चारों ओर यह आभास प्रति क्षण है,
मौसमी ख़ुमार जा फ़सा है फिज़ा में टंगे धुएँ में,
उम्र का बुखार भी चढ़ गया है इश्क़ के जुएँ में ।12।
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