जीवन में कभी मानस नहीं बाँची, हाथ में वाल्मीकि रामायण नहीं उठाई, अट्ठारह पुराणों के नाम नहीं गिना सकते, उपनिषद लिखा जाता है या उपनिशद- नहीं जानते, षडदर्शन को सिविल सेवा परीक्षा का प्रोबेबल टू-मार्कर जानकर रटा, तीर्थयात्रा जाना पड़ा तो उसे ट्रेकिंग बताया, महीनों से मंदिर में नहीं घुसे हैं, हवन का ह नहीं समझते, पूजन का पू नहीं पता, होली पर रंग नहीं डालते-डलवाते, जन्माष्टमी पर व्रत नहीं रखा , शिवरात्रि पर कभी भांग नहीं खाई, दिवाली पर पत्ते पीसकर और गिफ्ट लेकर रह जाते हैं और अयोध्या-मथुरा-काशी को राजनैतिक पैंतरा बताने में कभी पीछे नहीं रहे, लेकिन आधा मौका मिला नहीं कि सेवामुक्त और सेवारत अधिकारी हिंदुओं और हिन्दू धर्म एवं इतिहास के ज्ञाताओं को पाठ पढ़ाने दौड़े चले आते हैं । चीख-चीख कर खुद को सफल बताने और अफ़सरी झाड़ने की इतनी चुल्ल है कि राह चलते हुओं को भी धर्म का मर्म बताने के लिए तैयार बैठे रहते हैं ।
इन अफसरों को संस्कृत आती नहीं – इतनी भी नहीं कि राम के चौबीस रूप बता सकें – पर शास्त्रों का हवाला ऐसे देते हैं जैसे ट्रेनिंग अकादमी में हिन्दू दर्शन का अध्ययन कर के आए हों । राम का चरित्र कभी नहीं पढ़ा – न देव वाणी में , न हिन्दी में, न प्रादेशिक भाषाओं में । हो सकता है बचपन में रामानन्द सागर का धारावाहिक देखा हो, पर मर्यादा पुरुषोत्तम के न्याय, अन्याय और सीता के साथ सम्बन्धों पर अधिकारपूर्ण, अंतिम राय सब अफसरगण रखते हैं । वैसे ही जैसे गांधी पर भी सारे अधिकारी चलती-फिरती अथॉरिटी हैं (अंबेडकर अब तक इतने सर्वव्यापी नहीं हो पाये हैं )। कई हिंदीभाषी अफसरों को गीता का अङ्ग्रेज़ी अनुवाद पढ़ने के असफल प्रयास करते देखा है । पोथी खरीदते ही वे गीतोपदेश भी देने लगते हैं। भारत के इतिहास के बारे में भी इनकी अधिकांश जानकारी एनसीईआरटी , बिपिन चन्द्र, झा-श्रीमली और एचसी वर्मा से ज्यादा भर की नहीं है, लेकिन अहंकार अलबरूनी और अबुल फजल से अधिक है । खैर इस अधकचरे लेफ़्टिस्ट जहर को अपने उदर में डालकर कोई भला और उगलेगा भी क्या ?
यही वह वोक (woke) रोग है, जिसकी 2020 में कोरोना से भी अधिक चर्चा है – बिना अथवा अल्प ज्ञानोपार्जन किए बिना ही ज्ञान पेलने लग जाना , और पोल खुल जाने पर विक्टिम, विक्टिम खेलने लगना । धर्मग्रन्थों की मूल जानकारी के बिना ही उनपर विस्तृत टीका-टिप्पणियाँ और आलोचनाएँ करना , और सही अर्थ बताए जाने पर विद्वानों को रूढ़िवादी, अहंकारी और लिखित शब्द के दास बता देना इस वोक रोग के अन्य लक्षण हैं । यह वोक एक्टिविज़्म भारत की अफसरशाही, मीडिया और चुनिन्दा विश्वविद्यालयों के छात्रों-अध्यापकों में बहुत फैला हुआ है । इस बीमारी से ग्रसित रोगी एक पंक्ति में चलते हैं , एक दूसरे को सोशल मीडिया पर ब्लाईंड सपोर्ट करते हैं और झूठ-फरेब के उन्मुक्त इस्तेमाल से फर्जी नेरेटिव गढ़ते रहते हैं । हिन्दू रीति-रिवाजों का मखौल उड़ाना हो, औरंगजेब को ज़िंदा पीर साबित करना हो, महमूद घजनी को सोमनाथ विध्वंस से बरी करना हो, काशी विश्वनाथ मंदिर के तोड़े जाने को जायज़ ठहराना हो, शिवाजी या प्रताप को एकता में बाधक बताना हो, सल्तनत और मुग़लों की इबादत करनी हो ,एएमयू में जिन्नाह की तस्वीर पर माला चढ़ानी हों, सुप्रीम कोर्ट अथवा किसी भी संस्था पर घिनौने कटाक्ष करने हों – वोक सेना सदैव तत्पर है ।
अभी तक इस देश में बोलने की भी स्वतन्त्रता है, और चुप रहने की भी । कोई इन अफसरों के हाथ नहीं जोड़ता ,न ही कोई इन्हें धमकाता है कि आप ये न कहें कि ‘टेरर हेस नो रिलीजन’ , इस्लाम सबसे शान्तिप्रिय धर्म है, अंधाधुंध ईसाई धर्मांतरण हो रहा है या अब्राहमिक धर्म देश की राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं । हिन्दू होकर भी हिन्दू रहन-सहन और पूजा पद्धति को आप मानें, ऐसा भी कुछ आवश्यक नहीं । पर अगर सनातन धर्म के ऊपर फर्जी ज्ञान बघारने के कारण आपका उपहास उड़ रहा है, तो कृपया विनम्र होकर सुनने का साहस रखें । कोई आपको म्यूट, केनसेल अथवा ब्लॉक नहीं कर रहा है या करवा रहा है । ये सब तो लेफ़्टिस्ट चोंचले हैं । पर आपने अपने ईगो पर ले लिया है । खुल्लेआम ‘देख लेने’ और ‘सब याद रखा जाएगा’ सरीखी धमकियाँ दे रहे हैं, तो फिर आम जन आपको वोक, वामपंथी, गेसबेग, धिम्मी, अपीजर, राइस बेग कन्वर्ट, मौकापरस्त, भगवा सरकार देखकर मोरपंख लगाने वाला पोस्टिंग-लोलुप हरामी अफसर कहेगा ही । वक्त का फेर कुछ ऐसा है कि सुनना भी आपको पड़ेगा ! हम पर अपनी सिविल सेवा परीक्षा पास करने की धौंस न जमाएँ । हज़ार- बारह सौ हर वर्ष परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे ही – चाहे परम ज्ञानी हों, या गोबरधन ! वहीं सनातन धर्म और इतिहास के ज्ञाता एवं विशेषज्ञ अब बिरले ही मिलते हैं ।
वैसे सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू कर देने पर ही बहुतेरे ‘गुरु’ हो जाते हैं, और सेलेक्ट हो जाने के बाद तो आप सरकारी दामाद या बेटी मान लिए जाते हैं । एनसीईआरटी टेक्स्टबुक्स में से रटा हुआ अधकचरा, घिसापिटा मार्क्सवादियों का लिखा ज्ञान उलटने का अधिकार मिल जाता है। सेलेक्षन के बाद आप विधिवत किसी भी मंच से कुछ भी बोल सकते हैं । भले वह लेफ्ट का पोशक हो, लेकिन ट्विटर इतना एकतरफा मंच नहीं देता । सस्पेंड भी करता है तो बहस छूटते ही नहीं । विचारों के प्रारम्भिक आदान-प्रदान में ही यहाँ पर गुड़ और गोबर का अंतर दीख जाता है । मूर्ख, अकड़ू, खोखला व्यक्ति ट्रोल हुआ महसूस कर सकता है । ऐसे में सरकारी बेटी-दामादों को खीज होना लाज़मी है ।
लेकिन अगर आपको सामाजिक तौर पर लिखने और बोलने का शौक है तो सुनने का माद्दा रखिए । आपका दफ्तर नहीं है कि अर्दली जीशाब, जीशाब करते आगे-पीछे घूमेंगे । स्मरण रहे कि धर्मशास्त्र और आस्था आपके थोथे एनसीईआरटी / विज़ार्ड ज्ञान की मोहताज नहीं है । आखिर आप टुल्लू पंप से चलने वाले सिर्फ एक सरकारी पुतले हैं जो अपने सरवाइवल और केरियर प्रोग्रेशन की खातिर अपनी दुम हिला भी सकता है और घुमा भी । धार्मिक सभ्यता का प्रवाह सरकारी पन्ने पर आपकी चिड़िया और मोहर के भरोसे नहीं है । छात्र बने रहें, क्यूंकी नहीं जानते हैं यही सच है । सिविल सेवा परीक्षा पास कर लेने से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती । सरकार आपको प्रशासनिक पद पर ही नियुक्त करती है, धर्माचार्य अथवा न्यायमूर्ति नहीं बना देती । सर्वेसर्वा और भारत भाग्य विधाता बनने की कोशिश करेंगे तो जगहँसाई होगी ही, उसे प्रसाद मानकर स्वीकार करें ।
(लिखा है तो जगहँसाई के लिए प्रस्तुत भी हूँ । थोड़ा बहुत देखा-समझा है, उससे ज्यादा औंक दिया है । )
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