चेहरे पर नकाब,
सीने में तेज़ाब,
उलटने को बेताब,
बकने को इतना कि भर जाएँ किताब,
फूलती हुई सांसें,
ललाट पर जमा पसीने की बूंदें,
भय से सब कुछ लथपथ,
भरा बैठा हूँ अनकही बातों से लबालब,
ऐसे में कुछ विचार फिल्टर होकर मुंह से निकले,
किटाणु-युक्त होने के शक में लौटा दिये गए बैरंग,
बाकी बचे नकाब से टकरा कर
प्रविष्ट हो गए पुनः शरीर में,
छोड़ी हुई साँसों के साथ वापस जमा हुए,
इनमे से कुछ तो पेट में जा कर पच गए,
कुछ सोशल मीडिया पर गुबार बन कर
एसिड रेन के रूप में बरसे,
थोड़े बहुत विचार जिनका सीधा प्रसारण करना मुझे अतिमहत्वपूर्ण जान पड़ा,
मैंने सावचेती ताक पर रख कर,
मास्क एक ओर फेंक कर,
चीख-चीख कर,
दुनिया को सुना डाले,
लोगों के कान में छौंक डाले,
भले किसी ने सुना नहीं,
(सुना कोलाहल,विस्फोट,भक्क से छौंक का लगना –पर विचार नहीं)
पर सबने एक राय से कहा-
इसमे क्या नयी बात है?
यह आदमी कोई टीवी एंकर लगता है,
या फिर कोई धर्मांध-
जैसे मुर्गा बांग दे रहा हो मीनार के अंदर से,
या निश्चय ही कोई सत्यवादी होगा !
भेज दो इसे पागलखाने,
या साबरमती आश्रम,
या कर दो क्वेरेंटाइन….
….या तो चेनल बदल लो या धर्म,
अथवा टीवी ही बंद कर दो,
और बंद कर दो धर्म की दुकान। 36।
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