(बेचलर ही क्यूँ, कई मास्टर,एम फिल और पीएचडी भी किए होंगे। ऑफ इसलिए कि विषय मुखर्जी नगर ही है )
इंजीनियर या डाक्टर बनकर आप अपना करियर बना सकते हैं । पर यदि आईएएस बन गए तो समझो आपकी तीन पुस्तें तर गईं , ऐसी मान्यता है। अगली तीन से लेकर सात पीढ़ियों को वैतरणी पार कराने का मोह हिन्दी पट्टी वालों को सिविल सेवा के ऊपर-नीचे, दाँय-बाँय सोचने नहीं देता । बाप ज़मीन बेचने को तैयार है, माँ गहने बेचने को राज़ी है – बुतरु की कोचिंग के वास्ते जो बन पड़ेगा, वे करेंगे । आजतक मैंने खून या अंग-प्रत्यंग बेचने की कहानी नहीं सुनी , पर ऐसा भी होता ही होगा । बाद में अफसर बाबू की शादी के समय पर यह सारा त्याग और बलिदान कैश कराए जाने की संभावना बन बनती है ।
और काहे न जाये बबुआ तैयारी करने ? दिल्ली का किसी के बाप की है ? खुल्ला मैदान जैसा ओपन इम्तिहान है , हर प्रार्थी एक योद्धा है – ए सोल्जर आफ फोरचून । ऐसे में हर्ज ही क्या है दिल्ली जाकर बैचलर ऑफ मुखर्जी नगर बन जाने में ? जम कर पढ़िये, ऊपरवाले में आस्था रखिए, भारत सरकार आपको सेवा का मौका अवश्य देगी । और असफल रहे तो राज्य सरकारें , बैंक पीओ आदि भी तो हैं । स्वयं और देश के लिए नहीं तो बाप-दादा-मोहल्ला-गाँव-जाति-समाज का नाम रोशन करने के लिए प्रयास कीजिये और करते रहिए ।
हर इलाहाबादी खुद को एक एमपी मानता है । बनारसियों को लगता है कि वे ही धर्म का मर्म समझते हैं । ऐसे ही मुखर्जी नगर के ‘सिविल बाज़ार’ में हर आदमी सिविलरत और सिविलमय है । कुछ तो बन ही जाएंगे , कुछ कोशिश करते रहेंगे, कई ऐसे हैं जो अटेम्प्ट पूरे हो जाने पर पढ़ा-पढ़ा कर सिविल सरवेंट बनाने लगेंगे । कोई सिविल सेवा की तैयारी की किताब आईएएस-प्रार्थी को बेच रहा है, कोई भावी आईएएस को चाय-समोसा खिला रहा है या जूस पिला रहा है तो कोई भविष्य के अफसरों को ज्ञान ही पेले जा रहा है । मुखर्जी नगर की गलियों-चौबारों, गल्लों-फुटपाथों, कोचिंग-दुकानों और छतों-कमरों में सिर्फ एक ईष्ट का जप होता है- आईएएस नमो नमः ।
जैसे उत्तर में खड़ा है हिमालय भारत के इतिहास का साक्षी बनकर , वैसे ही खड़ा है मुखर्जी नगर के बीच में प्राचीन बत्रा सिनेमा – हरेक प्रार्थी, प्रेरक और प्रेरणा के धर्म-कर्म, जोश-क्रोध-उत्साह-पीड़ा, तड़क-भड़क, कड़क इरादों और कड़के हालातों एवं चर्चाओं-विवादों का साक्षी और राज़दार बनकर । गाँव-घर-कालेज में रहकर भी तैयारी हो सकती है , पर दिल्ली पहुँच जाने से कामनाओं के रथों के आगे महत्वकांक्षाओं के घोड़े लग जाते हैं । चूंकि साक्षात्कार देने दिल्ली आना ही है तो क्यूँ न धौलपुर हाउस (यूपीएससी बिल्डिंग) के समीप ही रहकर तैयारी की जाए । वैसे भी विश्वविद्यालय और सचिवालय के बीच अब सीधी मेट्रो लाइन है !
ऐसा ही एक ठेठ बिहारी छात्र संतोष अपने बस्ते में पुरानी एनसीईआरटी की किताबें, माँ-बाप का आशीर्वाद और आने वाली पुश्तों को सेट करने के अरमान भर कर आ पहुंचा है बत्रा सिनेमा के निकट , जहां उसे आने के लिए प्रोत्साहित करने वाले रायसाहब भाड़े पर एक कमरा लेकर रहते हैं । चेला संतोष गुरु रायसाहब से राय लेता है,मशविरा करता है और दोनों मिलकर निकलते हैं कमरा ढूँढने और किताबें-कोचिंग तलाशने । धीरे-धीरे संतोष की मित्रता होती है रंगबाज़ मनोहर और प्रखर गुरु सिंह से । मेहनती जावेद खान , फोकस्स्ड बिमलेंदु और आज़ाद ख्यालात की दो युवतियाँ –पायल और विदिशा- से भी दोस्ती होती है । इन मित्रताओं में ही प्रेम, जलन, संदेह, डाह, कामरेडरी, वासना और भाईचारा सब छुपा है ।
नीलोत्पल मृणाल ने प्रिपेरेशन के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं का बड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है । बाज़ार जाकर ठेला-भर किताबें खरीद लाना , कोचिंग की तलाश में यहाँ वहाँ घूमना, भेड़चाल में फसना, सुंदर चेहरों पर लार-टपकाना,विषयों के चयन में लापरवाही बरतना, तैयारी को पंचवर्षीय योजना समझ कर चलना और सफलता को सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ने वाली प्रक्रिया मानकर चलना- इन सभी पर मृणाल ने बड़े सहज तरीखे से ‘अनुभव-बम’ गिराए हैं । प्रतियोगियों के रहन-सहन, कमरों-बाथरूमों की गंदगी, भीड़ मे भी रहकर भी एकाकीपन, खराब भोजन पर निर्वहन और अभिभावकों की उम्मीदों का बोझ आदि को भी कथानक में पिरोया है । कैसे गाँव-घर से आने वाले रिशतेदारों के सामने अंग्रेजी झाड़ना, द हिन्दू अखबार की बंदी लगवाना और परीक्षा के माध्यम को लेकर सचेत और शंकित रहना भी वैसे ही होता है जैसे लेखक ने बताया है ।
बहुत से प्रतियोगियों का दिल्ली आकर कायाकल्प भी होता है, या कहें कुछ लोग तो दिल्ली ‘तैयार’ होने के लिए ही आते हैं । कपड़ा-लत्ता में बदलाव से लेकर इत्र-फुलेल और बालों में तेल की जगह डियो और जैल आ जाते हैं । चाल-ढाल-अकड़ को भी तैयारी से जोड़कर देखा जाता है । हर चर्चा में हर मुद्दे पर आईएएस-आईपीएस को घुसा देना भी एक कला माना जाता है। भीड़-मंडली बनने पर कुछ प्रतियोगी स्ट्रेस मिटाने और बुद्धिजीवी की तरह दिखने के उद्देश्य से शराब-सिगरेट आदि के शौक भी पाल लेते हैं । पर सबसे बड़ा सवाल बनारस और भागलपुर की तरह दिल्ली में भी रहता है- विपरीत सेक्स का । अधिकांश प्रतियोगियों के लिए युवतियाँ जंतुयालय के प्राणियों की तरह होती हैं जो आते-जाते, हँसते-बोलते, कोचिंग क्लास में, जूस पीते,कभी सिगरेट फूंकते दिखती हैं , पर न वे उन्हे जानते हैं न ही जानना चाहते हैं और न ही जानने की हिम्मत रखते हैं । बाईस से पैंतीस की उम्र के सैकड़ों नौजवानों के अंदर जबर्दस्त यौन कुंठा घर किए रहती है जिसकी अभिव्यक्ति अश्लील साहित्य या सिनेमा देखकर या ऐसे ही किसी अपने की यादों में खोकर अपने अधोवस्त्रों पर रंगाई-छपाई करके होती है ।
सिविल की परीक्षा मौसमों की तरह आती-जाती है – पीटी होगा , फिर उसके नतीजे आएंगे, उसके बाद मेंस और उनके नतीजे, फिर इंटरव्यू और अंतिम परिणाम और उसके तुरंत बाद पुनः पीटी परीक्षा । हर मौसम में कुछ पेड़ों पर बाहर आती है , फल-फूल लदते हैं , कहीं पतझर होता है । नए खिलाड़ियों का आगमन , उनका ठोकरें खाकर सिस्टम को समझना और पुराने बुजुर्गों का, जिनके अटेम्प्ट पूरे हो गए हैं , बोरिया-बिस्तर बांधकर दिल्ली से वापस लौटना अनवरत प्रक्रियाएं हैं ।
कहानी रांची के नीलोत्पल मृणाल ने लिखी है । वैसे ये पात्र और किस्से यूनिवर्सल हैं पर किताब में अधिकतर बिहारी पृष्ठभूमि पर केन्द्रित हैं । भाषा का लहजा और गीत इत्यादि पूरी तरह बिहारी ही हैं । भाषा में उर्दू नाममात्र की है लेकिन कही-कहीं फालतू में अङ्ग्रेज़ी का रायता परोसा है । कुछ पात्र गलियाँ देते हैं, जैसे सब छात्र देते हैं, यह भाषायी शुचिता के पहरेदारों को नागवार लग सकता है लेकिन प्रसंगों में बहुत मज़ा देता है । डार्क हॉर्स एक अत्यंत ईमानदार प्रयास है जिसके पात्र असल परिस्थितियों में अपनी भाषा बोलते और झूझते हैं । यह कहानी मेरी, आपकी और हमारे असंख्य मित्रों की है ।
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