सुबह उठना कठिन है , पर मन में हो विश्वास तो जतन करके चार बजे उठा भी जा सकता है । जम्हाई लेते हुए, आँखें मलते हुए लेखन-पढ़न के बारे में सोचना थोड़ा अजीब है, पर किया जा सकता है । टेबल-चेयर पर आसान जमाकर बैठ जाना उतना कठिन कार्य नहीं है । इतना तो कर ही सकते हैं । कलम-कॉपी हाथ में लेकर या लेप्टोप पर वर्ड फाइल खोल कर बैठ जाना प्रक्रिया का हिस्सा मात्र है । आपने पिछवाड़ा धर दिया , अब होगा सृजन !
कलम चलने को, पन्ने रंगे जाने को लालायित हैं । लेप्टोप पर कर्सर दुग-दुग करता है । विचारों ! तुम कब आओगे ?
“मुझे रंग दे, मुझे भर दे …..स्याही से पोत दे, विचारों को थोप दे ….”
मेरे विचारों को हिरण्यक्ष्यपु रोग से ग्रस्त हैं । बिन सोचे आएंगे नहीं , ज़ोर देकर अगर बुला भी लिया तो मन को भाएंगे नहीं ।
“न दिन में , न रात में । न घर में, न बाहर । न मानव के हाथों , न ही देव-दानव के द्वारा मारे जाओगे।”
नरसिंघ को आना पड़ा । विचारों के नरसिंघ जब आएंगे तब लेखन के अच्छे दिन भी लाएँगे ।
खुशवंत सिंह बड़े सबेरे उठकर मेज-कुर्सी पर जम जाया करते थे । काशीनाथ सिंह रात को सोफ़े पर लेटे-लेटे , कॉपी जंघाओं पर टिकाकार सृजन करते थे । चमन चेतन केफे कॉफी डे में बैठकर लिखता है । अमीष लेखकों को किराए पर रख लेता है । नेहरू ने जेल में डायरियाँ-पन्ने भर दिये थे । जेम्स जॉय्स ने तकरीबन और जॉन मिल्टन ने पूर्ण रूप से अंधे होने पर भी लिखा । थरूर को जब कोमलांगनाओं से मिलने और तस्वीरें खिंचाने से फुर्सत मिलती है , जमकर लिखते हैं । हम तो नौकरीशुदा बेरोजगार हैं । न समय की किल्लत है, न उत्साह की । भाषाओं के साथ व्यवहार भी ठीक-ठाक है । भेजे में कचरा भी बहुत भरा है । फिर बाज़ी कहाँ फसी है ?
प्रातः उठकर लिखते समय पहले व्यायाम एवं भ्रमण कर लेने का लोभ डिगाने लगता है । चलो ठंडी हवा का आनंद लें , योग ही कर लें , जिम भी खाली होगा और सड़कें भी । या फिर ब्रह्म मुहूर्त में स्नानमध्यानम कर लिया जाये । ईश्कृपा होगी तो सब सरलता से होगा । खने के बनिस्पत पढ़ना बहुत सुगम है । किंडल और किताबें उछाल कर हाथ में होने को होती हैं । परीक्षा के दिनों में पढ़ना पहाड़ चढ़ने समान लगता था , पर नवीन लेखन अंदर के स्रोतों को सूखा देता है । सुबह जल्दी उठकर अखबार और पत्रिकाओं को खंगालना समय की बरबादी और निद्रा का अपमान है । सोशल मीडिया तो एक ऐसा व्यसन है जिसे सवेरे अछूत समझना चाहिए । वह सृजनहंता है और समय उसका भोजन है ।
सोये हुए, खोये हुए परिजनों से ईर्ष्या रखना लाज़मी है । दिल करता है मैं भी सो जाऊँ । दिन में लिख लूँगा, संध्या में समय मिलेगा , रात्रि में क्या काम है ? क्यूँ नहीं ? दोपहर में दफ्तर और समाज में ढिंढोरा पीटना होगा । शाम में परिवार को ठेंगा दिखाना पड़ेगा । रात्री में सिनेमा, टीवी और बिस्तर से दूर रहकर लिखा जा सकता है । केवल थोड़ा सा बहुत सारा आत्मबल चाहिए । पर सुबह से तुलना नहीं हो सकती । तब कोई आपके समय पर अधिकार नहीं चाहता है । ध्यानाकर्षण की लालसा रखने वाले सवेरे चित्त रहते हैं । बस मनविजय करें ।
क्या अंदर कुछ खटकता है ? कोई अंदर है जो झकझोरता है ? संसार कुचक्र में फसे होने पर भी क्या गाहे-बगाहे लिखने की लालसा उठती है । कलम चलते ही क्या मुख से ‘यलगार’ निकलता है । यह आपका सत्य है जो आपको चैन से जीने नहीं देगा । आपकी आत्मा का प्रहरी , आपका नित्य प्रेरक जो आपको कचोटता रहेगा । मुंबईया फिल्मों में इसे आजकल चुल्ल कहा जाता है । उंगली भी । सार यह है कि अगर लिखने की उंगली होती है , तो लिखना ही पड़ेगा । धर्म-चक्र की तरह यह सिर पर अनवरत घूमता ही रहेगा ।
विचार होंगे तो उबल कर बाहर आ ही जाएँगे । कहानी मिल जाएगी तो कहने में भी आएगी । मन जब भी गाएगा या रोएगा , कविता हो जाएगी । सभी कथन सटीक हैं । परंतु अभिव्यक्ति लेखन के माध्यम से ही हो, ऐसा ज़रूरी नहीं । विचार चर्चाओं और गोष्ठियों में पेश होकर कुंद पड़ जाते हैं । कहानियाँ दोस्तों को सुनाते-सुनाते बदल सी जाती हैं । कविताएँ प्रेम अथवा विरह के गीत बनकर नेत्रों से नेत्रों को समझा दी जाती हैं । सोच की नियति लेखन नहीं , स्फुटीकरण है । उसे पृष्ठों पर उतारना निश्चयात्मक कर्म है । यदि मन आपका बिल्ली है तो गले में घंटी बाँधनी होगी । गाय है तो हांकनी होगी । घोड़ा है तो ढालना होगा । शब्द अपने से पृष्ठ पर जीवनपर्यंत नहीं उतरेंगे । वेद सैंकड़ों सालों तक श्रुति से ही स्मरण किए जाते रहे । फिर वेद व्यास को आसान जमाकर उन्हें लिखना पड़ा । गणेश की सेवाएँ भी ली गईं । लेखन प्राकृतिक अभिव्यक्ति नहीं है , उसके लिए प्रयत्न करने ही पड़ेंगे – चाहे भोर उठना या उल्टा लटकना पड़े , भले छुट्टी लेना या संसार त्यागना पड़े ।
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