संभ्रांत रसोइयों में आजकल जलेबियाँ तक तली जा रही हैं । यही जलेबियाँ खुल-खुलाकर सड़कों पर रेंग रहे गरीब प्रवासी मजदूरों को उनके गावों-कस्बों का मार्ग दिखा देती हैं । संभ्रांत वर्ग जितना ठूस-ठूस कर खा रहा है , उसे पचा पाना उसके लिए पेचीदा समस्या है । जिनके अपार्टमेंटों के अंदर या छतों पर पर्याप्त खाली जगह है, वह सुबह-शाम अपनी केलोरी जलाने के वास्ते कदमताल कर रहे हैं । ज्यादा पैदल चलेंगे तो चाहे जितने बढ़िया जूते-मोजे पहने हों , छाले ज़रूर पड़ेंगे! ये छाले जब जलने लगते हैं तो चप्पलें पहन कर तपती धूप में सैंकड़ों मील नापने पर विवश सहस्त्रों श्रमिकों की व्यथा का हल्का सा एहसास होता है । जो है थोड़ी बहुत सहानुभूति (sympathy) भर ही , पर जिसके नाम पर ट्विटर और मीडिया में समानुभूति(empathy) की कोटियों कौड़ियाँ चलाई जा रही हैं ।
चीरहरण के समय जितनी लंबी साड़ी कृष्ण ने कृष्णा को कवर करने हेतु प्रदान की थी , उससे अधिक कवरेज अबकी बार मीडिया ने प्रवासी श्रमिकों की समस्या को दिया है । पर वस्त्रविहीन होती द्रौपदी की जैसी उपेक्षा पितामह भीष्म ने की थी ,उससे भी अधिक तत्परता के साथ सरकारी तंत्र ने पैदल निकल पड़े मजदूरों को अनदेखा करने का प्रयास किया। कुछ-कुछ ऐसा कि मानो इस सिस्टम का धृतराष्ट्रीकरण हो गया हो । लेकिन भीष्म-द्रोण के आँखें नीचे कर लेने और नेत्रहीन धृतराष्ट्र के वस्त्रहरण न देख पाने-भर से त्रासदी अनदेखी ,अनघटित नहीं हो गयी थी । दुर्योधन की जंघा,कर्ण के ताने, दुशासन की फटी-हुई छाती , भीम की हुंकार-भरी प्रतिज्ञा और द्रौपदी की चीतकार ने उस घटना को हमेशा के लिए जीवंत कर दिया , जैसे प्रवासियों का पलायन भी अब तस्वीरों और फूटेज में कैद होकर अमर हो गया है।
भीष्म हमेशा राजधर्म से बंधे रहे इसलिए चुप रह गए । एक बार अटल जी ने भी कैमरे पर राजधर्म का उल्लेख किया था । राजधर्म यही होता है – राजपरिवार, सिंघासन, कोष, व्यापार, सबल और संभ्रांतों का संरक्षण । गरीब,शोषित,किसान, मजूर,दलित,पिछड़े,निर्बल – सब केवल आहुति मात्र हैं भीष्म की प्रतिज्ञा,धृतराष्ट्र की उच्चाकांक्षा और पांडवों के आडंबर के यज्ञ में। पांडवों का ज़िक्र हुआ तो खांडववन का दावानल मस्तिष्क में कौंध गया – असंख्य नागा आदिवासी और अन्य जीव-जंतु जल कर मरे होंगे , या फिर पलायन करने को बाध्य हुए होंगे। पांडवों के नीति-निर्धारक रणछोड़ जी को जनसंख्या प्रवास का पूर्व अनुभव था ।
कृष्ण के सुझाव पर – मथुरा से द्वारका
तुग़लक के फरमान पर – दिल्ली से दौलताबाद , फिर पुनः दिल्ली
घूम फिर कर बात पलायन पर आ टिकती है – बलात हो चाहे विवशतापूर्ण।
मजदूरों को सड़कों पर भ्रमण करते देख ड्राइंगरूम के सोफ़ों पर कचालू बनकर पड़े हुए कुछ एक एडवेंचर-लविंग और सैलानी किस्म के खासवर्गीय दबाव में आ गए हैं । जिन्हे सिर्फ भूखा,नंगा, लाचार,भिखमंगा जानते थे ,वह तिरस्कृत तो जठराग्नि-विजयी,आत्माभिमानी और आत्मविश्वासी निकले ! तुम फसे रहे रामायण, महाभारत, श्रीक़ृष्ण और विष्णु पुराण में – उसी समय में उन्होने क्रोस-कंट्री कर लिया – जिसे बोलेंगे इस ग्रीष्म ऋतु और कोरोना काल में देशाटन का बाप ! तुमने कथाएँ सुन लीं , मजदूरों ने सामाजिक व्यवहार,कठिनाइयों और बर्बरता के कितने ही किस्से-कहानियां-किंवदंती इकट्ठे कर लिए । स्मृतियाँ ऐसे ही बनती हैं , इतिहास भविष्य में उन पर ही लिखे जाएंगे ।
अनुभव से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । सामान्य वर्ग समाचारों के लिए ट्विटर,फेसबुक और फेक न्यूज़ पर निर्भर है । ये राजमार्ग-नाप रहे श्रमिक तो खुद ही ग्राउंड रिपोर्ट हैं । ध्यान रहे इनमे से कुछ एक के पास स्मार्टफोन भी होंगे , जाति-धर्म-क्षेत्र बोध तो है ही । इस सब से ऊपर इनकी पूंजी है इनकी गरीबी, अभाव और संख्याबल की महत्वहीनता का बोध । याद रहे कि मथुरा पलायन सफल रहा था , पर दौलताबाद बुरी तरह फेल हुआ था । इसलिए ऊंट किस करवट बैठेगा ,या बैठेगा भी कि नहीं यह तो समय बताएगा । पर पैदल चलने वालों को यह अंदाज़ा तो हो ही गया है कि कौन सा वर्ग घरों में दुबक कर बैठ गया है जबकि वे स्वयं चारों दिशाओं में भागादौड़ी करने पर मजबूर हैं । कौन उनकी मदद कर रहा है , कौन उनपर डंडे बरसा रहा है , कौन उनकी असामयिक मौतों पर औपचारिक शोक प्रकट करके फारिग होना चाहता है, न अब ये उनसे छुपा है न ये कि वे ,प्रवासी श्रमिक, अपनी कर्मभूमियों में भी अकेले हैं और कदाचित अपनी जन्मभूमियों में भी।
I salute to your analysis. Every one is playing political games & non of them having a pain really they all want to eat Jalebi
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