लॉकडाउन में मुझे चाहिए फ्रेश धनिया , गर्म कचोरी और खट्टे-मीठे आम

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सिंगापूर वाला सखा मुंह पर मास्क चिपकाए चार-पाँच किराना स्टोर छान आया है । घर पर पकौड़े बन रहे  हैं । बिना धनिये की चटनी के पकौड़ों का मज़ा अधूरा है । जिह्वा के तुष्टीकरण की खातिर एक हिंदुस्तानी कुछ भी करेगा । साथ में चाहे टमाटर की फ्रेश चटनी हो या पेक्ड केचप , हरी चटनी के बिना तो पकौड़े मात्र बेसन के बड़े हैं । पर कहाँ से लाये फ्रेश धनिया , जहां भी गया वहाँ पड़े पत्तों में पीलाशपन ही पाया । विपदा भारी , धनिए की खोज में फिरती फिरी मीरा मारी-मारी …….अंतिम समाचार मिलने तक सखा प्रयासरत था ।

“लोकलज्जा कोई असाध्य व्यावधान नहीं,

लॉकडाउन मेरी कामनाओं का अवसान नहीं,

अभिलाषाओं से समझौता संकट का समाधान नहीं,

खाली हाथ घर लौट जाना शौर्य और उत्कंठा का प्रमाण नहीं,

जितना लड़े वह लगे थोड़ा,जिसमे न उतरे ऐसा कोई घमासान नहीं,

बिना चटनी के ठूंस ले पकौड़े ,वह कोई पाषाण नहीं।”

 

सिंगापूर वाला सखा अकेला नहीं जिस पर लॉकडाउन की मार पड़ी है ।

मातेश्वरी को अमूल गोल्ड चाहिए , मिल रहा है अमूल ताज़ा । नब्बे फीसदी लोगों को शायद अंतर भी न पता लगे, माँ को भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता, बस दिमाग में आ कर बैठ गया है । काम तो चला रही हैं पर तीन-चार दिन बाद जब भी दूध लेने जाती हैं , एक हल्की सी आस रहती है इसलिए दूधवाले से सवाल करना तो बनता है ।

“ओ दादा , गोल्ड कब मंगवाओगे?”

“अभी ताज़ा मिल रहा है आंटी यही बहुत है !”

एक बार मैंने हल्के से बुदबुदा दिया था कि अभी ज़िंदा हैं बहुत तो ये भी है,तो वहाँ खड़ी कुछ घबराई ज़िंदगियों और ज़िंदा लाशों  ने मुझपर आँखों से कोरोनास्त्र चलाने की धमकी दे डाली ।

हाय रे वाइरस ! नाश हो तेरा ।

हर आदमी अछूत हो गया । हर संपर्क मृत्यु को निमंत्रण है ।

हर कोई संदिग्ध ! सबकी सांसें सांसत में !

 

पड़ोस में रहने वाले बंधोपाध्याय को रोज़ माछ मांगता है । दस बजा नहीं कि छतरी टाँगकर ख़रीदारी करने चल देता है । पुलिस की भी क्या मजाल कि टोक दे । एक दिन मैंने व्यंग्य कस ही दिया – “अंकल आते वक्त मेरे लिए दाल की कचोरी और बंछाराम से कुछ खीरकदम  लेते आना।”

आखिर क्या करूँ ? कोटा से हूँ । छ महीने से घर नहीं जा पाया हूँ । मेरे स्वप्नलोक में समोसा-कचोरी की बहुत सी दुकानें हैं । हमेशा खुली रहती हैं। शौकीन लोग समोसा-कचौरी में सेवड़े और केंत की चटनी उड़ेलकर खाते ही रहते हैं । स्वप्न में आने वाली एक दुकान बलराम मलिक की भी है जहां से बिना मोल लिए ही मैं प्रतिदिन नोलेन गुड़ के रोशोगुल्ले उड़ाता हूँ । वैसे कमसकम कलकत्ता में मिष्ठी की दुकानें खुली हुई हैं । मुझे इस बात का भान न था । मैं नाहक ही मिठाई उपवास निभा रहा था । बंधोपाध्याय एक दिन खीरकदम ले ही आया तो मैंने उपवास तोड़ दिया ।

 

गर्मी के मौसम में आइसक्रीम भी बहुत या रही है । एक तो ठंडी , ऊपर से बाहर जाकर खरीदना और खाना पड़े और फिर एक दिन खा लेने पर रोज़ ही तलब लगने का भाय – इस रोग को लॉकडाउन के दिनों में न पालें तो ही बेहतर है । आइसक्रीम का ज़िक्र हुआ तो गन्ने का रस भी स्मरण हो आया । शायद इन गर्मियों में नसीब ही न हो । लिखते-लिखते मन में शक्कर घुल गयी , नींबू-पुदीने का स्वाद आ गया ।

कोरोना की दवाई जब मार्केट में आएगी तो उसका टेस्ट कैसा होगा ?

कोरोना वाईरस का जायका कैसा है ?

बिच्छू के डंक जैसा या सर्पदंश जैसा विषैला ?

कुनेन तो बहुत कड़वी होती है ।

 

लॉकडाउन एक कठिन तपस्या है । हम घुमंतू प्राणी हैं, खाने-पीने और सैर-सपाटे के शौकीन । हमे प्रतिदिन फ्रेश भाजी-फल-माछ-दूध चाहिए। किराना करना हमारे अधेड़ों और बुड्ढों का पसंदीदा काम है । इकट्ठे ही  महीने –दो महीने का किराना केवल बड़े शहरों के व्यस्त दंपत्ति खरीदते हैं । इसी बहाने घर-रूपी जेल से निकल कर बुड्ढे हवा भी खा आते हैं । आजकल यह सब बंद हो गया है । सांस लेना दूभर है । स्वेच्छा से सब नज़रबंद हैं । स्वेच्छा के माने बदल गए हैं ।

 

फलों पर तो ऐसी छाया पड़ी है थूकबाज़ी की कि पता नहीं अब कब निश्चिंत होकर अमरूद , चीकू और सेब खा पाएंगे । मौसम आम का है । कुछ लोग कहते हैं आम मौसम कभी जाता ही नहीं ।ये लोग माज़ा और फ्रूटी पिएं और मस्त रहें । मेरा तो कलेजा जी को आता है । पिछले साल तक दिन में दो-तीन आम तो मैं अकेला खाया करता था और अब भी खाने की हसरत रखता हूँ –

 

“लदे पड़े हैं पेड़ों पर,

मेरी थाली में आम नहीं,

गुलाब खस कहाँ चले गए,

चौसों का नामोनिशान नहीं,

तोतापरी भी चल जाता,

दशहरी हर्ष लेकर आता,

बादामी अब तक दिखा नहीं,

केसर का वक्त अभी हुआ नहीं,

अब लंगड़ा खाने को ज़िंदा हैं,

नहीं हसरत रख शर्मिंदा हैं,

बिका अगर जो मंडी में,

होगा मेरी थाली में आम वही,

क्यूँ इच्छा लेकर मरना यारों,

अगर आम से मरना, आम सही।”

किसी दिन ये लॉकडाउन समाप्त होगा । सब कुछ खाने और पीने को उपलब्ध होगा । भूखे और प्यासे हम आज भी नहीं है , पर अपने खास पसंदीदा , दिल-ए-अज़ीज़ मिष्ठानों , फलों और व्यंजनों की भली पहचान हो गयी है ।

गर मिला मौका तो जम कर करेंगे शौक पूरे !

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