पगडंडी पर पड़े हुए (कविता)

poem

ऊंचे पेड़ों पर लदे हुए

पुष्पों को अपलक निहारता,

संज्ञा-शून्य हो हरित पट पर

प्रियतमा का मुखमंडल तलाशता,

लाल,पीले,भगवा रंगों के,

शिमुल,ट्रंपेट, पलाश में

उलझ गयी है मेरी ग्रीवा,

पर दिखा नहीं मुझे मितवा ।8।

 

किस उधेड़बुन में लगा रहा?

निष्ठुर प्रेम में फसा रहा,

धरा पर दृष्टि गयी नहीं,

कभी गिरे हुओं को गिना नहीं ,

पगडंडी पर पड़े थे छितराए,

वह श्रद्धा सुमन क्यूँ नहीं उठाए?

सुंदरता की सहस्त्रों उपमाएँ,

अस्वामिक, निष्प्राण अबलाएँ ।16।

 

हुए न अर्पित देवपूजन में,

गूँथे नहीं गए कभी केशों में,

किसी फूलदान में नहीं विहारे,

यूं पड़े हुओं को कौन निहारे?

चित्र पड़ताल में हुआ बोध,

था इनका भी अपना अस्तित्व,

जीवन-भर भले रहे उपेक्षित,

स्वीकार करें आलेख्य में अमरत्व।24।

 


#पगडंडी #शिमुल #ट्रंपेट #पलाश #रुद्रपलाश

 

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