कुर्सी पर सफ़ेद टॉवल देखते हैं , तो वे जलते हैं । जो सतरंगी हो, तो खिल्ली उड़ाते हैं । लेकिन सबसे घोर चिढ़न उन्हे होती है पीताम्बर या भगवा टॉवल देख कर । पर अब करें तो क्या करें ? हर किसी नत्थुगैरे की मनोकामना पूरी करने का ठेका तो हमने ले नहीं रखा । और इसलिए हमने ये फैसला किया है कि भले राघव चड्ढा ने टीवी वालों की मौजूदगी में अपना सफ़ेद तौलिया उतार फेंका हो, लेकिन किसी भी सूरत में ‘हम टॉवल नहीं उतारेंगे’ ।
राघव चड्ढा का क्या है , वह तो चिकना लौंडा है । उसे कहाँ पसीना आता होगा । माथे मे तेल भी वह शायद ही लगाता हो । मुफ्त बिजली के चलते दिन-रात एसी में रहता होगा । प्राइवेट नौकरी करता था , अब सरकारी ओहदा पा गया है । पद की गरिमा का कछु भान नहीं । ऐसे ही लोग चप्पल-सेंडल पहनकर ऑफिस आ जाया करते हैं । लेकिन हमको ध्यान रखना पड़ेगा ट्रेडीशन का , हमने बीड़ा उठाया है ।
अंग्रेजों जो झूठन छोड़ कर गए उसमें से सिविल सेवा को आज़ाद हिंदुस्तान ने बड़े सहेज कर रखा , और ‘स्टील फ्रेम’ के खिताब से नवाजा । संभव है इसी झूठन पर पर्दा डालने के लिए सफ़ेद तौलिया भी अंग्रेज़ ही छोडकर गए हों । खैर वह तो कबके चले गए , और इस बात का भी कोई पुख्ता प्रमाण है नहीं कि उन्होने ही हमे इस आवश्यकता से, जो वक्त के साथ स्टेटस सिंबल बन गयी ,रूबरू करवाया था । संभव है यहाँ की आर्द्रता में उनके लिए तौलिये बिना गुज़रा मुश्किल हो । कोई कहता है की यह टॉवल-प्रेम द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कुछ समय के लिए पधारे अमरीकी सैन्य अफसरों की देन है । अंगोछा और गमछा तो आम हिंदुस्तानी सदियों से इस्तेमाल करते आए है ।
पीठ के पसीने पर सरकारी अफसर कुर्सी से फिसल सकता है । मैं खुद अगर किसी रोज़ अपनी कुर्सी पर से फिसला तो कहाँ और कितना गिरूँगा , नहीं जानता । इस पसीना-प्लावन से निपटने हेतु मोटे, मुलायम, चक-सफ़ेद तुर्की टॉवल सरकारी कुर्सियों को पहना कर रखे जाते हैं । कुर्सी चाहे रेगजीन की हो या लेदर की , अगर अफसर बाबू की है तो उसपर टॉवल ज़रूर चढ़ा मिलेगा , भले ही अफसर नदारद हो ! यह सरकारी दफ्तर के स्थायी स्थापत्य का हिस्सा है । ऐसी ही रीत चली आई है ।
हालांकि अब हर दफ्तर में एसी लग चुके हैं , तो ज़ाहिर है पसीना भी फतह कर लिया गया है । एक जमाने में दामोदर को ‘सोरो’ और पसीने को ‘स्कूर्ज ऑफ बंगाल’ माना जाता था । दामोदर पचास साल पहले ही टेम हो गयी थी , अब एसी एवं डियो के युग में पसीने का भी कोई खौफ नहीं रहना चाहिए । पर फिर भी दफ्तरों की कुर्सियों पर टॉवल यथावत टंगे हुए हैं । कभी ज़रूरत रही होगी , अब ट्रेडीशन है, जैसे किसी काम की शुरुआत में नारियल फोड़ना, भूमि-पूजन करना और स्वस्तिक माँड़ना । चूंकि इसको हटा देने से न सर्विस डेलीवेरी इंप्रूव होगी , और न ही हम ज्यादा पब्लिक या बिज़नस फ्रेंडली हो जाएंगे , तो फिर मुद्दा क्या है ?
यह भी सच है कि कोई क्लर्क इंडेंट कर देता है तो टॉवल आ जाते हैं । चूंकि हम दिन भर उसपर तशरीफ धरकर बैठे रहते हैं तो वे गंदे भी होते हैं , और हफ्ते-वार धुलते भी हैं । धुल-धुलकर धीरे-धीरे जब फट जाते हैं , तो फिर फ्रेश टेंडर के जरिये नए टॉवल पुनः आते हैं । तुर्की से तो मँगवा नहीं रहे, भले उसे तुर्की टॉवल कह देते हों । बनकर तो अधिकांश घरेलू उद्योग से ही आता होगा । न ही मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास की लौंड्री की तरह पेरिस भेजे जाते हैं धुलने के लिए , अपने धोबी-घाट वालों को ही रोजगार मिलता है । हो सकता है पूरी सप्लाई चेन में कुछ-एक के हाथ गरम और किसी-किसी की जेब-भरण भी होता हो , क्यूँकि अगर यह एंगल न होता तो शायद इन टॉवलों की न कभी किसी को दरकार लगती , न कोई इंडेंट करके इनको मँगवाने की जहमत उठता ।एक तरह से कह सकते हैं कि स्थापत्य , परंपरा, मौसम एवं ब्लेक और व्हाइट अर्थव्यवस्था की तबीयत – हर हिसाब से ही तौलिया-संस्कृति अत्योत्तम और सर्व-कल्याणकारी है । शायद इसीलिए आज भी हिन्दू सगाई के दौरान दुलहेराजा को तौलिया अवश्य भेंट किया जाता है ।
तब यह समझ में ये नहीं आता कि आम आदमी और कुछ खास पत्रकारों को क्या चुल्ल मचती है जो इस सफाई , सादगी और खुशहाली के प्रतीक से चिढ़ते हैं । सफ़ेद तो खादी का कुर्ता और टोपी भी है , वे भी स्टेटस सिंबल माने जा सकते हैं , पर उनका उपहास कोई नहीं उड़ाता । यह समझना मुश्किल है कि कैसे प्राइवेट सैक्टर वाले कुर्सी पर टिके रह जाते हैं ? थोड़ा बहुत पसीना तो आता होगा , पर कभी टॉवल नहीं लगाते ! हो सकता है वह दफ्तर में लेट कर अथवा साष्टांग मुद्रा में कार्य करते हों ।
वातानुकूलित ट्रेनों में भी तो कंबल-चादर-तकियों से काम चल सकता है । वहाँ क्यूँ तौलिया / नेपकिन चाहिए ? तब कहोगे ज़रूरत का समान है । तो मैं भी जवाब दूंगा कि फिर कमरे के बाहर लाल बत्ती है , कमरों में सोफ़े , टेबल पर घंटी, बाहर खड़ा सिपाही, एसी , गाड़ी और ड्राईवर भी तो सरकारी अफसरों से जुड़े हुए हैं । क्यूँ मामूली तौलिये पर नज़र अटक जाती है ? किसका कौन-सा काम अटक रहा है या कौन-सा सरकारी घाटा बढ़ रहा है मेरी सीट पर धरे हुए टॉवल की वजह से ? कुछ टिशू पेपर के बारे में भी तो बोलो । वह भी अंग्रेजों की ही देन है । पर चूंकि तुम भी उसे बढ़-चढ़कर इस्तेमाल करते हो , तो उससे कोई समस्या कैसे होगी ?
सड़क पर घूमती कार में लाल बत्ती जलती थी तो खलती थी , टॉवल तो फिर सफ़ेद है और कमरे में कैद भी । रंग विहीन , सौम्य, गरिमामयी – अब इससे भी चिढ़न ! हल्लागुल्ला करके तुमने लाल और नीली बत्तियाँ तो बुझा दीं , अब टॉवल को गंदा मत करो । यह सफ़ेद टॉवल बहूपयोगी है । कभी लज्जा का आभूषण बन जाता है , तो कभी स्वयं के मृत सपनों को ढकने के लिए कफन । ऑफिस कार्य कठिन हो और स्थिति विकट, तो पसीने के साथ-साथ पिछवाड़ा पोंछने के काम भी आ जाता है ।
मैं फैसला कर चुका हूँ कि अपना तौलिया नहीं दूंगा । आम जनता को तुष्टीकरण और प्रतीकात्मक सफलताओं की नहीं , अनुशासन बापरने और परिश्रम करने की ज़रूरत है । तौलिया-हटाई से किसी का फायदा होने वाला नहीं , और मेरा नुकसान अवश्यंभावी है । अपनी रीढ़ की सुरक्षा हेतु मैंने यह फैसला किया है । यह सरकारी टॉवल भर है, किसी द्रौपदी का चीर नहीं । मैं मात्र एक अफसर हूँ , सुशासन नहीं ।