कर्कश और कसैले कंठों का देशव्यापी कंपीटीशन हो जाए तो कन्हैया और केजरी में ख़िताबी भिड़ंत होगी । आखिर पीएम से कम ये दोनों किसी और को लानतें देते नहीं और उन्हे हिटलर से कम कुछ कहते नहीं (हालांकि अब गृहमंत्री ने आधी ट्रोलिंग अपनी ओर खेञ्च ली है) । अपनी गर्दन और टांगें हर किसी के फटे में डालते हैं और जहां कोई गड्ढा दिखता है ,उसमे ज़रूर कूदते हैं । ऐसा कोई माइक नहीं बना जिसमे ये जहर फूंकने को लालायित न रहते हों और ऐसा कोई स्वांग नहीं बचा जो इन ने रचा न हो । शाहिद खान कह कर लेता था , यह चेताकर दे देने में यकीन रखते हैं । संविधान तो खैर बहुत पेचीदा हो जाएगा , पर प्रस्तावना का पूर्ण ज्ञान और उसकी मूल भावना पर इनकी पकड़ सर्वोच्च न्यायालय से भी अधिक है । देश के अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और युवाओं के हितों के रक्षक इनकी ज़बानी सिर्फ ये खुद हैं । कोई और अगर कुछ अच्छा कर रहा है तो बस कमीशन के लिए , ये कमीनापन भी फैला रहे हैं तो सामाजिक न्याय की खातिर ।
याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि टुकड़े-टुकड़े गेंग के सरगना उमर खालिद का लेफ्टिनेंट उर्फ खास चेला-चपाटा कन्हैया कुमार ही है । इट हेस आलवेज बीन क्लीयर हू राइट्स द स्क्रिप्ट एंड हू डज रोलप्ले । यह बताने की आवश्यकता भी नहीं कि आज की तारीख में जेएनयू का सबसे फेमस चूतिया कन्हैया ही है, भले ही अभिजीत बनर्जी, निर्मला मैडम और जयशंकर ने भी वहाँ अपना सर फोड़ा हो । कन्हैया के चाहने वाले एक चौपाल बहस का हवाला देते नहीं थकते हैं जहां पर उसने श्री श्री एक सौ आठ संबित पात्रा को भिगो-भिगो कर गोडसे मारे थे । एक दशक में अर्जित की गयी डोक्टरेट, देश के खिलाफ नारे लगाने के लिए एक महीने जेल और मारपीट के आरोप में बेगुसराई में एक एफ़आईआर कन्हैया की अन्य उपलब्धियां हैं । खुल्ले में मूत्रदान कर रहे कन्हैया को जब एक महिला ने टोका तो नेताजी ने उसे गलियों से बींध दिया और उसे दिखाकर दान दिया । लेकिन फिर भी इसमे कोई शक नहीं कि अगर समूचे विपक्ष को देखें तो तेज प्रताप, राहुल, तेजस्वी, सचिन, सिंधिया, शहला, उमर खालिद इत्यादि में सबसे चपल कन्हैया ही है । जिस लहजे में वह अमित शाह को उल्टा लटकाने , मोदी को अपना बाप मानने से इंकार करने और सेना के जवानों को कश्मीर में बलात्कारी बताने की बातें करता है, वह शेख चिल्ली से भी ज्यादा ड्रामेटिक और ज़ाकिर नायक से भी ज्यादा विषैला है । लेकिन फिर भी कन्हैया माने टीआरपी, और टीआरपी मतलब जय-पराजय-गुणवत्ता-सड़ांध से ऊपर उठ जाना ।
और इसी कन्हैया का कार्य-क्षेत्र है जेएनयू , जो पड़ता है दिल्ली में , तो वाजिब है हम मांग करें कि यह बुतरु अब चुनाव लड़े दिल्ली विधानसभा का ! और दिल्ली में कोई सीट इतनी बड़ी नहीं जितनी नई दिल्ली , जहां से केजरीवाल ने 2013 में शीला दीक्षित और 2015 में अरविंद सिंह लवली को हराया था । केजरीवाल अबकी बार भी नई दिल्ली से ही मैदान में है , तो क्यूँ न हो जाये दो –दो हाथ दो हाय-तौबा योद्धाओं में ?
कन्हैया का लोकसभा चुनाव में बेगुसराई से हारना बनता था , आखिर मोदी का चुनाव था । केजरी का भी बनारस में 2014 में पिटना बनता था , आखिर मुक़ाबला मोदी से था । पर किसी भी मुक़ाबले में चार लाख वोटों से हारने पर थोड़ी बेइज्जती और निराशा का एहसास होना लाज़मी है । स्वरा भास्कर से लेकर मारपीट , और भूमिहार रूट्स से लेकर युवा कार्ड –सब कुछ दांव पर लगाया था कन्हैया और लेफ्ट ने बेगुसराई में , पर तमाचा पड़ा भी तो किस से ? पाकिस्तान के वीसा मंत्री गिरराज सिंह से ! अब कॉमरेड में नैराश्य न घर कर जाये और चुनाव लड़ने की आदत न छूट जाये या लोकतन्त्र से विमुख ही न हो जाएँ , इसलिए दिल्ली ज़ोर-आजमाइश के लिए बड़े मौके का अखाड़ा है ।
वैसे केजरीवाल आजकल सीनियर लीडर की भूमिका में आ गए हैं । एक जमाने में वह कन्हैया से भी बड़े ‘हिट एंड रन’ आर्टिस्ट थे । ‘सब मिले हुए हैं जी’ , ‘सब चोर हैं’ और ‘मैं हूँ आम आदमी’ जैसे नारे देने के बाद केजरी ने एक नहीं , दो बार दिल्ली में सरकार बनाई है । ठीक है , बनारस में मोदी के विरुद्ध मुंह की खाई , पर कम-से-कम अपनी ग्रीवा तो प्रस्तुत की ही थी ! आजकल उन्होने अपना भौंपू बंद कर रखा है , खासकर जब से सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगना महंगा पड़ गया था । लेकिन अगर दबाव बढ़ाया जाये तो शायद पुराने भड़कीले रूप में लौट भी आए ।
भाजपा इस मुक़ाबले का तीसरा कोण हो सकती है (काँग्रेस चौथा भी नहीं होगी , इतनी विल पावर बची कहाँ है )। लेकिन मनोज तिवारी मिश्री से मीठे हैं और हर्षवर्धन शिव की तरह शांत – एक कपिल मिश्रा ही है जो लक्ष्मण की भूमिका में होते हुए भी इन दोनों खर-धूषण का वध करने में सक्षम है । पिछले दो सालों में केजरीवाल के खिलाफ जितने मोर्चे कपिल मिश्रा ने खोले हैं और जितनी गालियां वामपंथियों को दी हैं ,उतना तो केजरीवाल और कन्हैया मिलकर पाँच सालों में भी पीएम के खिलाफ नहीं बोल पाए । कपिल मिश्रा इज़ ए न्यूक्लीयर वेपन , ए ब्रह्मास्त्र ,एंड ही नोज़ देट । कपिल मिश्रा केजरी पर अनवरत सीधे निशाने साधते रहे , और लेफ्ट खासकर जेएनयू वालों से भी जम कर पंगे लिए । केजरी ने अपने पुराने कॉमरेड को हालांकि अब तक नज़रअंदाज़ ही किया है,लेकिन बात वही है की दबाव कितना पड़ता है ।
नई दिल्ली से पर्चा भर कर कन्हैया अपनी महत्वकांक्षा का एलान कर सकता है , साथ ही इसे नागरिकता कानून और एनआरसी के खिलाफ बताकर लेफ्ट और अल्पसंख्यकों को भी लामबंद कर सकता है । अगर नई दिल्ली से हिम्मत न हो तो फिर महरौली से लड़ ले , जो जेएनयू का विधान सभा क्षेत्र है । वह भी न जमे तो वल्लीमरन या चाँदनी चौक से लड़ ले जहां मुस्लिम वोटर अधिक हैं । इसकी धार कुंद करने के लिए उस सूरत में भाजपा को तजिंदर सिंह बग्गा जैसे किसी लकड़बग्घे को उतारना चाहिए जो इसका शिकार कर सके । वैसे कन्हैया की लड़ने की औकात नहीं है , न दिल्ली में और न ही बिहार विधान सभा चुनाव में । एक करारी हार बहुत है किसी भी लेफ़्टिस्ट का केरियर बनाने को । अब उसके मुंह खून लग गया है मुफ्तखोरी का , और अब वह सिर्फ टीआरपी लीडर बनकर ही मौज काटेगा । इससे ज्यादा आप लेफ्ट से और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं ?
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