खाकी वर्दी को सिस्टम के एनफ़ोर्सर होने का गुमान है । काले कोट को सिस्टम के मेनिपुलेटर होने का । जानते दोनों ही हैं कि सिस्टम के माई –बाप- हुज़ूर नेता-मंत्री हैं । अदालतों में बार के चुनाव की बयार चल रही है । ऐसे में लौकप में घुस कर पुलिसवालों के साथ मार-कुटाई करने वालों के सितारे ज़रूर चमक गए होंगे । हाई कोर्ट ने चुनाव कुछ दिन के लिए टाल ज़रूर दिये हैं , लेकिन वर्दी वालों के साथ गुंडई करने वालों की तो अब समझो निकल पड़ी । सुना है न्यायपालिका ने पुलिस को गुंडातत्वों के खिलाफ एफ़आईआर न करने को भी कहा है ।
जैसा की उम्मीद थी ,अंकल जजेज़ ने धृतराष्ट्र धर्म निभाते हुए पूर्णतयः पक्ष काकवर्ण का ले लिया है । यह तो हमेशा से ही होता आया है । वकीलों और मिलोर्ड्स के रोटी-बेटी के संबंध हैं । दोनों का पुलिस से हमेशा ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है । पिछले दो दिन से हर कोई जयपुर,इलाहाबाद और चेन्नई हाई कोर्ट की घटनाएँ गिना रहा है – किसने किसको दौड़ाया था , कौन ठुका था , कैसे सब वकीलों ने पुलिसवालों के केस लड़ने से मना कर दिया था और अदालतों ने सालों तक आरोपी पुलिसवालों को जमानत नहीं दी । बक़ौल अकबर अल्लाहबादी – पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा , लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए ! शैतान कौन है , इसका खुलासा न अकबर साहब ने किया , न आज भारत में किसी की करने की हिम्मत है । हम राम से उलझ लेंगे , शैतान से तौबा ! मंडिर भी तो बनाना है ….
तीस हजारी में एक पत्रकार को भी सूँत दिया इन हुड़दंगी वकीलों ने । पत्रकार सिस्टम में फैल रहे केन्सर का लक्षण भी हैं और द्योतक भी । अब उनमे से ही एक ठुकाई खा गया तो फिलहाल पुलिस के समर्थन में खड़े दीख रहे हैं । पर साथ ही पुलिस के आला अफसरों को याद दिलाने से भी नहीं चूक रहे वो अत्याचार जो उन्होने कन्हैया पर किए थे । पत्रकारों के लिए सब कुछ हेतुमय है, कंडीशनल है, ट्रान्सेख्श्नल है । ये हैं चौथा स्तम्भ इस ढहते हुए प्रजातन्त्र का ।
वैसे दिल्ली में पुलिस की कुटाई से बस पुलिस ही हैरान है । परेशान सभी सरकारी कर्मचारी हैं । पिछले हफ्ते राजस्थान में गाँव वालों ने पुलिस कस्टडी से एक गुज्जर गेंगस्टर को छुड़ा लिया । बंगाल में पुलिस स्टेशनों पर हमले होना आम है । कुछ महीने पहले जिस तरह से बीच सड़क में नंगी कृपाण लहराने वाले एक सिक्ख ड्राइवर और उसके पुत्र को पुलिस ने टैकल किया , उससे विभाग की कार्यप्रणाली पर कई सवाल उठे हैं । दुनिया जानती है कि पुलिस सिर्फ डंडे की भाषा जानती और समझती है । सारी अकड़ और बदतमीजी आम आदमी के साथ , और सक्षम के सामने नतमस्तक –पुलिस का ऐसा ही व्यवहार है । शायद इसलिए खाकी से बहुत सहानुभूति किसी को भी नहीं है ।
यह और बात है कि वकीलों की विश्वसनीयता शून्य से भी कम है । और फिर सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस की मजबूती बहुत आवश्यक है । इस घटनाचक्र से दशहथ सी फैल गई हैं । आज जैसी हिमाकत चंद वकील कर सकते हैं , उसका अनुसरण कल रोहिङ्ग्या- बंगलादेशी और राजनौतिक कार्यकर्ता भी करेंगे । 2001 में संसद पर हमला हुआ हो चाहे 26/11/2008 का , पुलिस दोनों ही बार सोती हुई पायी गयी थी । 8 नवंबर को राम मंदिर पर फैसला आना है …. जब प्रहरी ही हौंका-हौंका कर, दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा हो , तब प्रजा कैसे सुरक्शित महसूस करे ?
जो तो लौकप में 3-4 वकीलों की हड्डी-पसली बराबर की गई होती , या अंदर घुस कर सिपाहियों की ठुकाई करने वालों में से कुछ को गोली लगी होती, या फिर वो जो दो वकील बाइक वाले सिपाही को पीटते हुए दिख रहे उनकी मरम्मत हो गयी होती , तब तो डिपार्टमेंट कुछ कह सकने की स्थिति में होता । यहाँ तो एसएचओ , दो डीसीपी और कई सिपाही मार खा गए , तीस हजारी में कितनी मोटरसाइकलें और संपत्ति जला दी गयी और दूसरी तरफ महज एक काले कोट के ही हस्पताल में भर्ती होने की खबर है ।
इतनी बेइज्जती क्या कम थी जो पुलिसवाले अब मिल मजदूरों की तरह धरना-प्रदर्शन पर उतर आए हैं । कैसा लगे अगर रुलिङ्ग पार्टी ही महंगाई के विरोध में प्रदर्शन करने लगे ? अगर बादल ही बारिश के खिलाफ ज्ञापन देने लगे ? सेवा नियमों को ताक पर रख कर वर्दी में प्रदर्शनबाजी हो रही है । अपनी नाकामी का जुलूस खुद वर्दीधारी निकाल रहे हैं । मार भी खा गए और फिर शोर भी कर रहे हैं । यूनियनबाज़ी क्या वर्दीधारियों को सुभाती है ? बंगाल के उस शीर्ष पुलिस अधिकारी का भी स्मरण कीजिये जो वर्दी पहनकर खुद ही की गिरफ्तारी के खिलाफ नेताओं के साथ धरने पर बैठ गया था । नौटंकी करनी ही थी तो कमसकम वर्दी किनारे रख देते । पुलिसवाले खुद इज्ज़त नहीं करते, बाकी जमाने से उम्मीद रखते हैं वर्दी की गरिमा बचाए रखे की । आम आदमी अब रोये , या हँसे , या बस डर जाए ? ये रिसाव कैसे रुके ? असुरक्षित ,हताश और निरुत्साहित पुलिस देशहित में नहीं हैं , वकीलों और राजनीतिज्ञों को भले ही सूट करती हो ।
बार में,खेलों में ,सोशल मीडिया पर ,यहाँ तक की हर गतिविधि में सिर्फ राजनीति ही होनी है , तो वह ऐसे ही होगी । यह समाज ‘बहुत अधिक लोकतन्त्र’ की बीमारी का शिकार हो गया है,जिसके लक्षण हैं हिंसक आंदोलन । आज़ादी पूर्व के सत्याग्रह एक बगैर चुनी हुई सरकार के खिलाफ होते थे , फिर वामपथी रणनीति घेराव, हड़तालें और तोडफोड की रही । जातियों ने गैर-वाजिब बातें मनवाने के लिए वहीं से लामबंद होना सीखा । वकीलों को तो खैर गुंडागर्दी का अनुभव असहयोग आंदोलन से ही है । कुछ महीने पहले कलकत्ता में भीड़ के हाथों पिटे डॉक्टर लामबंद हुए । तब पुलिस तमाशबीन बनकर उनकी दुर्गति देखती रही । अब वकील आक्रांता बन गए हैं , सिपाहियों को किरण बेदी चाहिए , न्यायपालिका का हर गतिविधि में दखल देने का अधिकार सुरक्शित है,वहीं किसी भी चुनी हुई सरकारों ने कोई भी सख्त निर्णय लिया नहीं कि हर ओर से ‘तानाशाही नहीं चलेगी’ की ललकार गूंजने लाती है ।
अगर सरकारें मजबूती से नहीं चलेगी ,तो वही चलेगा जो चल रहा है – भीड़तंत्र । वह मेरे प्यारे देशवासियों को मुबारक हो !
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