मन्नू भण्डारी कृत महाभोज – सत्तर दशक के राजनैतिक कूड़े के ढेर पर सभी आमंत्रित हैं

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क्रांति की मशाल को सत्ता भले छिपा दे, चाहे मुख्यधारा से हटा दे , पर बुझा नहीं सकती । जब एक बिसेसर मरता है , तो कोई बिन्दु आ डटता है और जब उसे जेल में डाल दिया जाता है, तो सक्सेना बागी हो जाता है । सरकारें आती हैं , जाती हैं पर सामाजिक बदलाव की चाह रखने वाले दीवानों के दिलों में क्रांति की लौ प्रज्वलित रहती है । दुर्निवार सम्मोहन भरी यह खतरनाक लपकती हुई अग्नि-लीक बिसू  ,बिंदा और सक्सेना तक ही नहीं रुकी रहती, अपितु मौका पाकर और समय आने पर दूर-दराज में और जनमानस को भी ऊष्मा प्रदान करती रहती है ।

मन्नू भण्डारी ने कहानी किसी क्रांति की नहीं , बल्कि एक उपचुनाव की कही है । पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसी एक सीट पर उपचुनाव होना है । प्रदेश के पुराने सियासतदान सत्ता से बाहर रहकर छटपटा रहे हैं और मौजूदा हुक्मरान बगावत से परेशान हैं । मुक़ाबले में हैं भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुकुल बाबू जो साल भर के बनवास के बाद सदन में पुनः प्रवेश करना चाह रहे हैं । उनकी सीधी टक्कर है लखन लाल से, जो मुख्यमंत्री दा साहब का चेला है । चेले को टिकट दिलवा तो लिए मुख्यमंत्री , पर पार्टी में कई लोग भीतरघात कर रहे हैं ।

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इसी सीट के अंतर्गत आता है एक गाँव – सरोहा – जिसमे पैंतीस फीसदी जाट वोट हैं और हरिजनों की संख्या भी अच्छी ख़ासी है (संभव है 1979 तक लोक-विमर्श में दलित ने हरिजन शब्द को प्रतिस्थापित न किया हो ) । कुछ ही दिन पहले सरोहा की हरिजन बस्ती में एक आगजनी की घटना में  दर्जनों लोग जल कर रख हो गए थे । बहुत तफ़्कीश के बाद ख़ानापूर्ति के लिए  दो कांस्टेबल सस्पेंड कर दिये गए । बिसेसर इस घटना से बड़ा कुपित था और असली मुजरिमों के खिलाफ सबूत जुटा रहा था जब या तो उसकी हत्या हो जाती है या वह आत्महत्या कर लेता है । लेखिका जब पट उठाती हैं उस समय आगजनी और बिसू की मौत बड़े राजनैतिक मुद्दे बन चुके हैं ।

दा साहब न सिर्फ विपक्ष के तेवर और गाँववालों का गुस्सा झेल रहे हैं  बल्कि उनकी अपनी ही पार्टी में भी द्वंद्व बढ़ रहा है । मंत्रियों  त्रिलोचन सिंह , राव और चौधरी के बागी होने की खबरों से दा साहब के चेले-चहेतों का भी विश्वास भी डिगा हुआ है । अख़बारनवीस सरकार के खिलाफ जम कर खबरें छाप रहे हैं । लेकिन इन विषम परिस्थितियों में भी दा साहब सहज हैं । लेखिका ने उनका व्यक्तित्व भव्यता के फ्रेम में मढ़ा है – शांत, स्थिर , लोकतान्त्रिक और मानवी मूल्यों के पोषक,भरोसेमंद ,गूढ़, गहन, आत्मविश्वास से लबालब परंतु फिर भी विनीत । सादगी से जीवन जीते हैं और देश तथा देशी पद्धति के मुरीद हैं । पर साथ ही उनमें भर दी है स्वार्थपरक महत्वकांक्षा जो उनके हर गुण और कार्य पर भारी है । नतीजा यह कि दिन-रात गीता और गांधी की दुहाई देने वाले दा साहब ही व्यवस्था के सबसे बड़े भक्षक बन बैठे हैं ।

पुरानी सरकार ने बहुत ज़्यादतियाँ (शायद आपातकाल के दौरान ) बरती थीं । उसे उखाड़ फेंकने के लिए दा साहब, अप्पा साहब और त्रिलोचन सिंह जैसे विपक्ष के नेताओं ने लंबी लड़ाई लड़ी । सरकारें बदल जाने से व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो जाया करते । सामाजिक हिंसा और उत्पीड़न की जड़ें बहुत गहरी हैं । अभी साल भर भी नहीं हुआ है कि नए सत्तारूढ़ दल में बंदरबांट चालू हो गयी है । ऐसे में यह दा साहब पर आन पड़ती है कि सरकार और पार्टी को बचाने के लिए अपने लोगों से समझौता करें और मीडिया एवं पुलिस को मैनेज करते हुए उपचुनाव में सुकुल बाबू को रोकें । साथ ही उनकी सरकार की ओर से घरेलू-उद्योग-योजना भी लागू की जा रही है । वहीं दूसरी ओर सुकुल बाबू और उनके चेले बिहारी को तो सर्वथा भ्रष्ट और आत्ममुग्ध ही दिखाया गया है । कहीं न कहीं मन्नू जी का समर्थन और सहानुभूति ठहराव वाले व्यक्तित्व के धनी दा साहब के संग है क्यूंकी सुकुल बाबू से कोई उम्मीद नहीं बची और त्रिलोचन में रणनीतिक कौशल की कमी है ।

इस छोटी सी कृति में बाकी सभी किरदार व्यंग्यचित्र बनकर रह गए  हैं । सुकुल,त्रिलोचन,अप्पा साहब और काशी को विकसित किया जा सकता था । राव,चौधरी,बिसू,बिहारी और बिन्दु के एक ही आयाम हैं । डीआईजी सिन्हा और पत्रकार दत्ता बाबू को सर्वथा स्वार्थी गिंडोलों के तौर पर पेश किया गया है । बस गाँव में बयान लेने गए एसपी सक्सेना का एक किरदार है जो कहानी बढ़ने के साथ अपनी परतें भी बढ़ाता चलता है । अपनी नेकी के चलते वह पहले ही सिस्टम के हाशिये पर था और अब आखिर में रेंकने से इंकार करने पर उसे कुचल कर फेंक दिया गया है । पर अब वही बचा है जो न्याय के लिए संघर्षरत है ।

गाँव में हालांकि बदलाव के स्वर सुनाई देते हैं । शहरों से लड़के आए हैं क्लास और कास्ट पर रिसर्च करने । बिसू और बिंदा जैसे संवेदनशील लोग हैं जिन्हे झूठे या फिर बिना मुकदमों के ही जेल में ठूंस दिया जाता है । किसी भी विरोधी पर नक्सली का तमगा कभी भी चिपका कर उसे सालों-साल जेल में सड़ाया जा सकता है । वैसे भी मीडिया और पुलिस से जब-जब झुकने को कहा गया ,उन्होने रेंगने में संकोच नहीं किया है।

कुलमिलाकर यह उपन्यास सत्तर के दशक की सियासत पर एक करारा व्यंग्य है । चुनावों में बस धनबल और बाहुबल चलता है । राजनीति तब भी प्रदूषित थी, और आज भी कलुषित है । लेखिका यह भी कहना चाहती हैं कि आदमी महत्वपूर्ण नहीं होता,और न ही घटना ,सब कुछ मौके-मौके पर निर्भर करता है । चालीस साल बाद भी यह लघु उपन्यास उतना ही प्रासंगिक है ।


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