रसगोला सफ़ेद छैने की मिठाई है ।
जबकि रसोगोल्ला सफ़ेद छैने की मिठाई है ।
रंग और बनावट में रात-दिन का अंतर है – उतना ही स्पष्ट जितना कि किसी भी उड़िया और बंगाली इंसान की शारीरिक संरचना और व्यवहारीय विशेषताओं में होता है ।
रसगोला मीठी चाशनी में विचरण करता है ।रसोगोल्ला शक्कर के पानी में डूबा रहता है । बड़ी दिलचस्प बात है कि शक्कर के पानी को ही चाशनी कहते हैं । हो सकता है कल को इनके लिए भी अलग अलग से जीआई टैग मिलने लगें । जीवन शैली में इतनी समानताएं तो फिर हिन्दू और मुसलमान में भी होती है , लेकिन हैं तो वे अलग-अलग ही !
उड़िया कहते हैं कि रसगोले जिह्वा पर रखकर, दांतों से दबाते ही मुंह में घुल जाते हैं । जबकि बांग्लार रसोगोल्ला महीन रबड़ की तरह होता है , जिसे चबाने पर ‘खर-खर’ की आवाज़ होती है । मेरे हिसाब से, और जीआई का टैग देने वालों के लिए भी, यह बहुत बड़ा भेद है – उतना ही जितना हल्लाल और झटका मीट से बने व्यंजनों के दरमियान होता है । सुना है कि अंतर उनके स्वाद में भी कुछ चर-चर , घर-घर का ही होता है । वर्ना तो फिर लार्ड जगन्नाथ का सहारा रसगोला ने भी लिया है, जैसे हल्लाल को बिस्मिल्लाह का सहारा है ।
नवंबर 2017 में तकरीबन दो साल की जेद्दोजहद के बाद बांग्लार रसोगोल्ला को जीआई टैग मिलने पर उड़ीसा में अफरा-तफरी सी फैल गयी थी । माहौल इतना गरम हो गया था कि उड़ीशा रसगोला को टैग दिलाने के लिए सीएम साहब ने बाकायदा एक कमिटी गठित की और जंग छेड़ दी । पिछले साल रसोगोल्ले को लेकर उड़ीसा का मज़ाक उड़ाने पर राज्य सरकार इतना खफा हुई कि एक विदूषक अभिजीत अय्यर-मित्रा को एक महीने तक जेल में सड़ा कर रखा । सरकार , हलवाई , पंडे-पुजारी , बुद्धिजीवी , संभ्रांत वर्ग और आमजन – सभी ने मिलकर अपने ईष्ट जगन्नाथ से सहायता की गुहार लगाई । जब पुरी मंदिर के पुराने दस्तावेज़ों के दम पर यह दावा कर दिया गया कि रथ यात्रा के अंतिम दिन,यानि नीलाद्रि बिजे पर, जगन्नाथ स्वयं अपनी भार्या लक्ष्मी को रसगोला भेंट करते हैं, तब तो उड़ीसा का दावा अभंग और अकाट्य सा हो गया । वहीं दूसरी ओर, बंगालियों का दावा कि हलवाई श्री नोबीन चन्द्र दास की बाघबाजार स्थित दुकान में सन 1868 ई में रसोगोल्ले की प्रथम संरचना हुई कुछ उथला सा लगाने लगा । उनही दावों की तरह जो श्री राम का जन्म 5114 ई.पू. में और धरती की उत्पत्ति 4004 ई.पू. में हुई बताते हैं । यह बात कुछ हजम नहीं होती कि कभी शक्कर के पानी में तैरता, कभी डूबता छैने का एक टुकड़ा मात्र डेढ़ सौ साल पहले ही जन्मा होगा । पुरी में बारहवीं से पंद्रहवीं शताब्दी में रसगोले के भोग लगाए जाने के दावे और बलरामदास रचित दंडी रामायण में इसका ज़िक्र रसगोले को एक दिव्य ओहदा प्रदान करता है ।
खैर अब दोनों ही राज्य खुश हैं । पब्लिक में थोड़ा कन्फ़्यूसन ज़रूर है । घोड़े-गधे में फर्क न कर पाने वाले रसगोले- रसगुल्ले-रसोगोल्ले की बारीकियों पर कहकशे फरमा रहे हैं । कमसकम इस बहाने इस उपेक्षित मिठाई को यथोचित सम्मान तो मिल रहा है । उम्मीद है इस बहाने उत्तर प्रदेश के वाशिंदों को भी समझ में आ जाएगा कि काले रंग के मावे के गोले को रसगुल्ला नहीं , गुलाबजामुन कहते हैं । और जिसे वो गुलाबजामुन कहते हैं उसपर उड़ीसा और बंगाल जंग लड़ चुके है ।