हिंदीवादियों की बेवजह अकड़ खड़ी राष्ट्रवाद की राह में रोड़ा बनकर

यू.आर.अनंतमूरथी, भैरप्पा ,कुवेम्पु, वासुदेवन नायर,पेरुमल मुरूगन और इरावती कर्वे ने क्या कुछ लिखा है इससे उत्तर भारत को शायद ही कोई सरोकार हो । खैर मतलब तो उन्हे निर्मल वर्मा , नरेश मेहता और कृष्णा सोबती से भी नहीं है ,पर दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भारत की संस्कृति के बारे में जानने की कहीं कोई उत्सुकता मैंने उत्तर भारतीयों  में अब तक नहीं देखी । कभी-कभार कोई बाहुबली या रोबोट जैसी फिल्म ज़रूर अपनी धूम मचा देती है , पर ये अपवाद हैं । महान प्रादेशिक लेखकों और उनकी कृतियों , फिल्म निर्देशकों और उनकी फिल्मों , कर्नाटिक संगीत और दक्षिण भारतीय भोजन के प्रति एक जड़ उदासीनता का भाव है ।  इडली-डोसा-सांभर ,रजनीकान्त और वीरप्पन ज़रूर हिन्दीपट्टी में मशहूर हुए । आजकल सबरीमाला और कुछ बरस पहले राम सेतु चर्चा मे रहे, और थोड़ा बहुत भरतनाट्यम और कथकली के नामों से उत्तर के लोग परिचित हैं । वरना हालत यह है की राहुल गांधी के वायनाड (केरल) से चुनाव लड़ने के फैसले को मैदान छोड़ कर भाग जाना करार दिया गया और यह प्रोपगेण्डा चला भी । रजनीकान्त जैसे  मेगा स्टार  भी नायक के तौर पर नहीं अपितु व्हाट्सएप जोक्स के हास्य अभिनेता के तौर पर ही यूपी–बिहार में  वायरल हुए हैं ।

कहीं न कहीं कुछ समस्या तो है ।

समस्या हिन्दीभाषियों की नहीं है । ये हिंदीवादियों का किया-धरा है  जिन्होने पिछले 72 साल से राष्ट्रवाद के झंडे तले हिन्दी के नाम पर तांडव मचाया हुआ है । शुरू से ही ये भीड़, लोहिया और पुरुषोत्तमदास  टंडन के जमाने से ही , बहुत जल्दी में और भारी उन्माद के साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के फेर में रही है । संविधान सभा से लेकर संसद में और सड़कों पर जिस तरह का हो-हल्ला हिन्दी के नाम पर फैला और फैलाया गया ,शायद उसकी आवश्यकता नहीं थी । भाषा अपने आप धीरे – धीरे बढ़ रही थी और है । 1971 में 37 फीसदी लोग हिन्दी बोलते और समझते थे ,2011 में 43 फीसदी । पर जबर्दस्ती का सयानापन न दक्षिण सहन करेगा,  न ही पूर्व और पश्चिम । भाषाएँ गले के नीचे नहीं उतारी जा सकतीं , नयी भाषाओं में लोरियाँ नहीं सुनाई जा सकतीं । और फिर अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के प्रसार और विकास का कार्य केंद्र सरकार कर ही रही है ।

हिंदीवादी अक्सर इस्राइल के भाषा पुनर्जागरण का हवाला देते हैं । पर हीब्रो की तुलना हिन्दी से करना उचित नहीं । संस्कृत कहाँ लुप्त हो गयी है कोई नहीं जानता ? उसे तो हमने प्राचीन का तमगा देकर  भुला दिया है ।  और हिन्दी को वह स्थान कदापि प्राप्त नहीं हो नहीं सकता जिस की अधिकारिणी उसे हिंदीवादी मानते हैं । धर्मशास्त्र आखिर संस्कृत में हैं ,हिन्दी में नहीं । और तमिल खुद एक बहुत प्राचीन भाषा है, जिसके इतिहास के सामने हिन्दी का डेढ़ सौ वर्ष का इतिहास नहीं ठहरता । बेटे (हिन्दी) को बाप (संस्कृत) मानने से बेटा बाप हो तो नहीं जाएगा !

भारत की कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं है पर संविधान के आठवें अनुच्छेद में 22 राजभाषाएँ विनिर्दिष्ट है ,जिसमे से एक हिन्दी भी है । 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा मनोनीत किया गया और साथ में संघ के कार्य निर्धारण हेतु अङ्ग्रेज़ी को भी राजकीय भाषा का दर्जा दिया गया । भाषायी दंगों के बाद लागू हुए राजभाषा अधिनियम 1963 के तहत अङ्ग्रेज़ी और हिन्दी को अनिश्चितकाल के लिए संघ की राजकीय भाषाएँ (राजभाषाएँ) मान लिया गया है ।  राज्य अपनी राजकीय भाषाएँ चुनने को स्वतंत्र है । 29 में से सिर्फ 9 ही राज्यों की राजकीय भाषा हिन्दी है । ऐसे में हिन्दी का राष्ट्रीय चरित्र उतना स्पष्ट नहीं है जितना हिंदीवादी मानते हैं ।

1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने पहली बार त्रिभाषी फॉर्मूले की बात की । तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों की राजनीति शुरू से ही हिन्दी और उत्तर भारत के विरोध के इर्द-गिर्द घूमती रही है  । उन्होने द्विभाषीय नीति अपनाई और स्कूलों में सिर्फ अङ्ग्रेज़ी और तमिल ही पढ़ाई गईं । लेकिन आंध्र, कर्नाटक और केरल ने अङ्ग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा के साथ ही हिन्दी पर भी ध्यान दिया । तमिलनाडु के आंकड़े भी  चौंकाने वाले हैं । हिन्दी प्रचारिणी सभा की परीक्षाओं में 2018 में राज्य के 5.8 लाख छात्र उत्तीर्ण हुए ,जबकि यह संख्या 2009 में सिर्फ 1.8 लाख थी । कहा जा सकता है वर्तमान में हो रहे विरोध के बावजूद दक्षिण और खासकर तमिलनाडू में भी हिन्दी का व्यापक प्रसार हुआ है ।

इससे सवाल उठता है की त्रिभाषा फॉर्मूला उत्तर भारत में कितना सफल रहा । कुछ चुनिन्दा नवोदय विद्यालय छोड़ दें तो कहीं भी तमिल ,तेलुगू, मलयालम ,कन्नड़, उडिया ,बांग्ला या मराठी नहीं पढ़ाई गईं । तीसरी भाषा के नाम पर हमे संस्कृत ज़रूर 2-3 साल पढ़ाई जाती है ,पर याद रहे वह एक क्लासिकल भाषा है जिन्हे  पढ़ाने का प्रावधान अलग से है । और तो और संस्कृत भी इतने  अनमने ढंग से पढ़ाई जाती है कि अधिकांश हिंदीभाषीय आज संस्कृत में भी बेहद कमजोर हैं । किसी भी क्षेत्रीय भाषा का हिन्दी क्षेत्र में कहीं नामोनिशान नहीं है । अगर आप दक्षिण भारतीय हैं तो आपको इन सब में कहीं न कहीं उत्तर के उपेक्षा अवश्य महसूस होगी । सिर्फ तमिलनाडू को त्रिभाषा फॉर्मूला फेल होने के लिए जिम्मेदार मानना उचित नहीं है , उत्तर की भूमिका शायद कुछ अधिक ही है ।

हिन्दी को अब संपर्क भाषा के रूप में पेश करने की कवायद है । कहा जाता है कि हिन्दी सीखने से दक्षिण भारतीय छात्रों को पढ़ाई , रोजगार, पर्यटन और व्यापार में सहूलियत होगी । आज की तारीख में लाखों हिंदीभाषी बंगलोर ,चेन्नई,  हैदराबाद ,मुंबई और पूना  में नौकरी कर रहे है ,पर उनमे से कितनों ने यहाँ की प्रादेशिक भाषाओं का आरंभिक ज्ञान भी लिया है ? लिखना और पढ़ना तो बहुत दूर की बात है , दो-चार शब्द सीखने की जहमत भी उत्तर भारतीय नहीं उठाते । कहीं न कहीं यह व्यवहार औपनिवेशिक अकड़ का एहसास करता है । ज़रूरत होने पर भी टूटी-फूटी हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी के सहारे काम चला लेना गैर-हिन्दी भाषियों को ज़रूर चुभता होगा । ध्यान रहे ,ये सब उदीयमान छात्र हैं जो चुटकी में लोकल भाषा सीख सखते हैं । मैं खुद 5 वर्ष गुजरात में और 3 वर्ष बंगाल में रहा हूँ, पर गुजराती और बंगला सीखने की कोशिश भी नहीं की । ये आलम तब है जब मैं सभी भाषाओं में सिनेमा देखना पसंद भी करता हूँ ,पर अङ्ग्रेज़ी सबटाइटल्स के साथ ।

बात सिर्फ इतनी है कि सोच में कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है । दक्षिण ,खासकर तमिलनाडू, और हिंदीवादियों में आपसी विश्वास की कमी है जिसे ज़ोर-ज़बरदस्ती से हल नहीं किया जा सकता । अगर उत्तर भारतीय खुद हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी के साथ दो-तीन वर्ष संस्कृत सीखकर काम चलना चाहते हैं तो तमिलभाषियों को भी हिन्दी सीखने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । रही बात प्रसार की तो वह काम वक्त और बॉलीवुड धीरे-धीरे कर ही रहा है ।


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2 Comments Add yours

  1. Preyansh says:

    Lots of assumptions which are not true. Sorry to say but article is far from Reality.

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  2. sex says:

    This paragraph will assist the internet people for
    setting up new website or even a weblog from start to end.

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