मैं जब भी आँखें बंद करता हूँ तो अपने चारों तरफ राजनैतिक हो-हल्ला ही सुन पाता हूँ । वैसे भी यातायात का कोलाहल ,और टिंग टिंग करके आते हुए वाट्सएप मैसेज मुझे अब ध्यान तो करने देते नहीं । मोबाइल स्विच ऑफ किया जा सकता है ,किया भी है कई बार ,पर तब भी मन उधर ही भागता है ।ऐसे में आँखें बंद करके कुछ सोच पाना संभव नहीं रहा है ,बस सुन सकता हूँ ।
लोकतन्त्र का इतना बड़ा मकड़जाल फैल गया है हमारे देश में कि हर चौराहे,हर बैठक और हर टीवी स्टूडिओ में लगने वाले किसी भी चौपाल में बस राजनीति के लिए ही समय निकाल पता है । यह अलग बात है कि जिस तरह से चर्चा होती है ,उसे न शिष्ट राजनैतिक संवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है ,न ही मछ्लीबाज़ार के उद्देश्यपूर्ण मोल-भाव में । पता नहीं राजनैतिक गतिविधियां न रहें तो हमारा ज्ञानवर्धन ,जीवन यापन और मनोरंजन कैसे हो ।
जैसे हिन्दी सिनेमा ने शुरू से ही दुर्घटना के अंत में आने वाली पुलिस को अशक्त दिखाकर उसकी जमकर मिट्टी पलीद कर थी ,वैसे ही इस मिलेनियम में शुरू हुई स्टूडिओ घोष्ठियों ने मीडिया अंकर्स और राजनीतिज्ञों की इज्ज़त का मटियामेट कर दिया । आज बच्चा-बच्चा जानता है अर्णब,अमीष और बरखा दत्त की हक़ीक़त , और पूरा अवाम मानता है कि कैसे नेतागण सच और काम कि बात के अलावा सब कुछ करने के लिए डटे हैं मैदान में ।
आज हर चीखने-चिल्लाने वाले आदमी में मुझे देवगन दिखता है ,अमीष वाला । अजय वाला तो लकड़ी के पराशूट में उड़ता हुआ अपनी ज़बान केसरी,नशीली आँखें और लाल बालों का इश्तेहार करता नज़र आता है । पता नहीं आज समाज में सबसे घृणित कौन है – नेता या मीडियाकर्मी अभिनेता ?
हाँ जब मैं कभी-कभार आँखें बंद करके सोच पाता हूँ ,तो खुद को मृत्यु से घिरा हुआ पाता हूँ । इंसानी मृत्यु ,ख्वाबों की मौत और लोकतन्त्र,न्याय एवं स्वस्थ सामाजिक व्यवहार का रोज़ होता कत्लेआम । सर्दी-खांसी-जुखाम और फ्रेक्चर से अधिक गहन गड़बड़ी हो तो डॉक्टर एकदम अंधेरे में है और तीर-तुक्के ही चलाता है । जीवन-मरण सब रैनडम है ,किसी को कुछ पता नहीं है । सफ़ेद कोट पहन कर सिर्फ अपना अज्ञान ढका जा रहा है । काले-कोट पहनकर बस अन्याय के लिए लड़ा जा रहा है । वोट या तो जाति या पैसे कि खातिर ही पड़ रहे हैं । विकास के सपने चकनाचूर हो चुके हैं । पब्लिक जानती है इस नए रंगमंच के नियम – चिल्लाओ ,कमाओ ,और जो पकड़े जाओ तो बगल वाले को भी चोर बताकर अपने जुर्म में भागीदार बनाओ । बस चिल्लाते रहो ,ज़ोर ज़ोर से ,और लगातार,बाकी काम मीडिया कर देगा ।
जब आँख खुलती हूँ तो खुद को बहुत दुर्बल पाता हूँ । मेरे अधिकतर खाली समय पर अब नेटफ्लिक्स का अधिकार है ,किताबें तो कब से किराया देना बंद कर चुकी हैं । फ़ेसबुक और वाट्सएप के आने के बाद भी मुझे किताबों के लिए समय निकाल पाने की उम्मीद थी ,पर नेटफ्लिक्स और प्राइम ने अब मेरी ललक को लहूलुहान कर दिया है । अब किताबें बेच देने का समय है ,वैसे भी किंडल के आगमन के बाद पेड़ काटकर कागज बनाना बहुत ही गैर ज़रूरी और गैरजिम्मेराना मालूम होता है । और वक्त है ही नहीं पढ़ने के लिए ,तो क्यूँ जमा करके रखी जाए ये पूंजी !
पिछली सदी में कह कर लेने का संस्कार था –दो महायुद्ध ,पचास साल चलने वाला शीत युद्ध ,हर पल परमाणु विनाश का भय -पर इस मिलेनियम में विज्ञान चोरी छुपे ही अपने गुदातंत्र से आंत्रवायु निकाल रहा है । स्मार्टफोन और सोशल मीडिया ने पूरी तरह से हमारे समय को अपने पाश में जकड़ लिया है । सदियों से बेड़ियों में में रहने का आदि हो चुका मानव इस ग़ुलामी को बहुत चाव से भोग रहा है ।
मोटे तौर पर कहूँ तो कुछ ऐसा लगता है जैसे-
अब ज्ञान नहीं ,बस विज्ञापन हैं ,
खबरें नहीं , नज़रिये प्रासंगिक हैं ,
दोस्त गायब पर कोनटेक्ट्स बहुत हैं फेसबुक पर ,
नेताजी व्याख्यान नहीं करते ,बस अब ट्वीट देते हैं ,
भोजन भले शुद्ध न रहा ,और्गेनिक उपलब्ध है बाज़ार में ,
फेक न्यूज़ का कैसा कहर है , कि सब पेड लगता है अखबार में ।
स्वच्छंद ज़रूर हैं अब भी ,पर आज़ाद नहीं रहे ,
हम ग़ुलाम हो गए हैं समयाभाव में ,
ब्रह्म, जीव, माया का मेटरिक्स तो अनादि काल से है,
अब ऐसा वेब बुना गया है हमारे भावों में , (इंटरनेट)
आभासी वास्तविकता में विचरना ही सुरक्षित लगता है ,
बजाय पुराने माध्यमों के भ्रष्टाचार और कोलाहल में ।
शुक्र मनाइए योग अभी भी योग ही है ,
पतंजलि प्रोडक्ट पेटेंट नहीं हुआ है बाज़ार में ,
और चूंकि जीवन जीने का अधिकार अभी भी है ,
तो उसमें भोग कि गुंजाइश बाकी है,
प्रेम, नशा ,संपत्ति,परिवार अब भी जीवन के आधार हैं ,
कुछ रखा नहीं है इस इंटरनेट के व्यवहार में ।