गोल्ड- इतिहास कुर्बान है अक्षय कुमार की शान में

ज़रा सोचिए कोई सरफिरा ही होगा जो  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन  पर एक   फिल्म बनाए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ,नेहरू,पटेल और बोस के चरित्रों के नाम बादल कर महामना  , पंडित ,चौधरी और दास रख दे । फिर इन ऐतिहासिक  हस्तियों की चारित्रिक विशेषताओं की  भी अपनी सनक के हिसाब से ढाल  दे । उससे ज़रूर पूछना बनता है  की कोई काल्पनिक कथा ही क्यूँ नहीं कह देते ?

ऐसा उथला  सिनेमा या लेखन ‘अलटेरनेट हिस्ट्री’ नहीं माना जा सकता  ,क्यूंकी साहब,अपने इतिहास को बदलकर कोई  वैकल्पिक संकल्पना तो की ही नहीं । आपने तो बस मुख्य पात्रों को नया जामा पहना दिया और उन महान सपूतों को गुमनामी में धकेल दिया जिनके महान कृत्यों को भूनाकर आप गोल्ड कमाने की चाह रखते हैं । न तो ये न्याय संगत है ,न ही तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है । इसे हिस्टॉरिकल फिक्षन कहना भी उचित नहीं होगा क्यूंकी यहाँ तो एक मामूली  काल्पनिक किरदार को नायक बना दिया गया है ,और असली नायकों का अतापता ही नहीं है !

भला कौन सा भारतीय होगा जो फिल्म में  मेजर  ध्यान चंद का नाम सम्राट सिंह रख देने से आहत नहीं हुआ  होगा ? कुँवर दिग्विजय सिंह बाबू के किरदार का नाम बदल देने और उनकी तासीर के विपरीत उनका चरित्र गढ़ देने से आखिर क्या लाभ हुआ और किसको ? अमित साध ने अच्छा अभिनय किया है पर जैसा की फिल्म में दिखाया गया है  केडी सिंह बाबू कभी एक स्वार्थी और अकड़ू इंसान नहीं थे । विनीत कुमार सिंह का किरदार इम्तियाज़ भी दरअसल पाकिस्तान के पहले कप्तान अली इक्तदार शाह दारा  पर आधारित है । सनी कौशल ने बलबीर सिंह सीनियर का  किरदार निभाया है ,जो अब भी हमारे बीच हैं । जब मिलखा ,मेरी कॉम ,धोनी जैसी फिल्मों में नामों को  बदलने की आवश्यकता महसूस नहीं हुआ तो फिर यहाँ  असली नामों  के इस्तेमाल में क्या  समस्या  थी ? आम पब्लिक और हॉकी के चाहनेवाले तो अपने नायकों को स्क्रीन पर देखकर और अधिक खुश  होते । आखिर उन्हे 1936 और 1948 की विजय यात्रा का हिस्सा बनने का मौका जो  मिलता ।

मुझे लगता है ये नकली नाम सिर्फ इसलिए ईजाद किए गए क्यूंकी ध्यान चंद,किशन लाल,केडी सिंह बाबू ,बलबीर सिंह और इशाक दारा जैसे कद्दावर नाम अक्षय कुमार के  किरदार पर बहुत भारी पड़ जाते । अब बॉलीवुड सुपरस्टार को फिल्म में लिया है तो सबसे अधिक महत्त्व का रोल भी देना पड़ेगा ,इतिहास जाये  तेल लगाने । अक्षय का किरदार कुछ मेनेजर और सपोर्ट स्टाफ के मिश्रण पर आधारित है और किसी भी असली खिलाड़ी के व्यक्तित्व के सामने टिक नहीं पाता । इसलिए महान खिलाड़ियों के नामों को किनारे रखना पड़ा गया होगा  ।

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती । फ़ाइनल मैच में ब्रिटेन को 2-0 की बढ़त लेते हुए दिखाया गया है । असल में  मैच का नतीजा भारत के पक्ष में 4-0 से था ,जबकि फिल्म में भारत कड़े संघर्ष के बाद 4-3 से ही जीत पाता है । ड्रामा उत्पन्न करने के लिहाज से शायद रीमा कागति और राजेश देवराज ने फ़ाइनल की स्कोरलाइन में तबदीली की  होगी । लेकिन देखा जाए तो ब्रिटेन पर एक संघर्षपूर्ण विजय और भारत के हाथों उनके  एकतरफा मानमर्दन में बहुत फर्क है । अपनी फिल्म बेचने के लिए आपको भारत के वर्चस्व के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए था ।

ऐसा भी नहीं है कि इस फिल्म के लेखन में   रिसर्च नहीं हुआ । फिल्म में पेनाल्टी कोर्नर पुराने अंदाज़ में लेते हुए दिखाया गया है ,जब गेंद को हाथ से पकड़ कर रोका जाता  था । बटवारा हो जाने के फलस्वरूप कई अच्छे खिलाड़ी पाकिस्तान पलायन कर गए और भारतीय टीम बहुत कमजोर हो गयी थी । फिल्म में यह पक्ष ठीक से कवर किया गया है । ब्रिटेन के जेहन में ब्रिटिश-इंडिया से पराजय का भय था और इस कारण ’48 से पहले दोनों टीमों में कभी मुक़ाबला नहीं हुआ था ।भारत ही नहीं ,पाकिस्तानी खिलाड़ियों में भी अपने पुराने आकाओं को हराने की हसरत थी । फ़ाइनल में इसीलिए पाकी खिलाड़ियों ने भारत को चीयर किया थी ,जैसा की दिखाया भी गया है ।

बारिश के कारण मैदान गीला हो गया था और इस कारण खेल की गति धीमी हो गयी थी । भारतीय टीम ने इस समस्या के निराकरण के लिए हवाई पास की रणनीति अपनाई ,बजाय शॉर्ट पास के । लेकिन फ़ाइनल मैच में टीम जूते उतार कर नहीं खेली थी जैसा की फिल्म में रूपांतरित है । बलबीर सिंह को सेमीफाइनल में नहीं खिलाया गया ,हालांकि पहले कुछ लीग मैच में वह खेले थे । फाइनल में भी उनको भारतीय हाइ कमिश्नर कृष्ण मेनन के हस्तक्षेप के बाद ही खिलाया गया ।

एक और ऐतिहासिक क्षण जिसको देश और दुनिया ने अब तक उचित सम्मान नहीं दिया है  इस फिल्म में दर्शाया गया है। बर्लिन ओलिंपिक्स की ओपनिंग परेड में अमरीका के अलावा सिर्फ भारतीय दल ऐसा था जिसने हिटलर को नाजी सल्युट नहीं दिया था । इस कृत्य की जितनी सराहना की जाए ,कम है ।

ओलिम्पिक हॉकी में भारत का स्वर्णिम इतिहास रहा है और  कुल मिला कर  आठ  स्वर्ण,एक रजत और दो कांस्य  पदक हासिल किए हैं । हॉकी के अलावा सिर्फ एक अभिनव बिंद्रा ही  हैं जिनहोने हमें ओलिम्पिक स्वर्ण दिलाया है । भारत और खासकर  हिन्दू सभ्यता की  इतिहास लेखन में कभी कोई खासी  रुचि नहीं रही है । आज भी हॉकी के  बीते कल की कहानी पढ़नी हो तो शायद ही कोई ठीकठाक पुस्तक उपलब्ध हो  । हॉकी के जादूगर ध्यान चंद और कुँवर के॰डी॰सिंह बाबू सरीखे खिलाड़ियों पर भी कोई साहित्य सामग्री नहीं मिलती। पिछले कुछ वर्षों में एक दो फिल्में ज़रूर बनी हैं हॉकी पर- चक दे और सूरमा-पर वे भी इस गौरवशाली इतिहास पर प्रकाश नहीं डालतीं । हमने अब तक अपने आठ सोने के तमगों को घर की मुर्गी समझकर  तवज्जो दी ही नहीं ।   यह भी संभव है की लगातार छ ओलिंपिक स्वर्ण जीतने के कारण हम अपने एकतरफा प्रभुत्व और बाकी दुनिया की हॉकी के प्रति उदासीनता को  लेकर शर्मिंदा  या क्षमाप्रार्थी रहे हों ।

अब जब हमारे हाथ कुछ नहीं रहा ,तब हम  उस   स्वर्णिम काल  को स्मरण करके मन बहला लेते हैं । पिछले छत्तीस सालों में  हमने ओलिंपिक हॉकी में कोई पदक नहीं जीता है । जैसे भारतवर्ष एक समय सोने की चिड़िया हुआ करता था और अब एक दरिद्र राष्ट्र है ,वैसे ही पिछली शताब्दी के मध्य काल में  हम ओलिम्पिक हॉकी में स्वर्ण के व्यापारी हुआ करते थे ,और अब भीखमंगे हैं । पर फिर भी तथ्यों पर आधारित  एक ढंग का सिनेमा बनाकर हम अपने इतिहास और रण-बांकुरों का सम्मान क्यूँ नहीं कर पाते ?

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