अड़तालीस डिग्री पर तप रही मई की एक दुपहर में मैं अपनी कार सड़क किनारे पार्क करके खड़ा था । मम्मी किसी कार्यवश बैंक के अंदर गईं थी और लौटने ही वाली थीं । इतने में एक टेम्पो चालक अपने वाहन को सड़क के बीच में ,ठीक मेरी कार के सामने, पार्क करने लगा । ‘भाई ,थोड़ा सा साइड लगा दे । अपनी गाड़ी कैसे निकालूँगा ?’,मैंने आग्रह किया । लाल बनियान और हरा कच्चा पहने मेरे बगल में खड़ा उस टेम्पो का कंडक्टर अपने ज़र्दामयी दाँत किटकिटाकर मुझपर झपटा और गुर्राया ,‘ कोटा इ छोड़ दूँ क्या ?’
‘दुनिया इ छोड़ द,खाली कोटा छोड़बा से काईं होगो ?’ मैंने ये सोचा ,मगर बोला नहीं । उसे इसी तरह के जवाब की उम्मीद थी , जब मिला नहीं तो निराश हुआ और अगले कुछ क्षण मौसम और डीजल-पेट्रोल की मार के लिए भगवान और मोदी जी को गरियाते हुए गाड़ी थोड़ा साइड हटाकर पार्क कर दी।
“कोई नहीं, कोटा की गर्मी है , थोबड़ा गरम हो जाता है ” मु बोल्यो ।
“हाँ भाई, गर्मी मार डालगी, शहर तो मार ही रियो छ बरसान स !”
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